शनिवार, 14 जनवरी 2012

राजस्थान के लोक देवता वीर पाबूजी


फेरां सुणी पुकार जद, धाडी धन ले जाय |आधा फेरा इण धरा , आधा सुरगां खाय || उस वीर ने फेरे लेते हुए ही सुना कि दस्यु एक अबला का पशुधन बलात हरण कर ले जा रहे है | यह सुनते ही वह आधे फेरों के बीच ही उठ खड़ा हुआ और तथा पशुधन की रक्षा करते हुए वीर-गति को प्राप्त हुआ | यों उस वीर ने आधे फेरे यहाँ व शेष स्वर्ग में पूरे किये |सन्दर्भ कथा -पाबूजी राठौड़ चारण जाति की एक वृद्ध औरत से 'केसर कालवी' नामक घोड़ी इस शर्त पर ले आये थे कि जब भी उस वृद्धा पर संकट आएगा वे सब कुछ छोड़कर उसकी रक्षा करने के लिए आयेंगे | चारणी ने पाबूजी को बताया कि जब भी मुझपर व मेरे पशुधन पर संकट आएगा तभी यह घोड़ी हिन् हिनाएगी | इसके हिन् हिनाते ही आप मेरे ऊपर संकट समझकर मेरी रक्षा के लिए आ जाना |चारणी को उसकी रक्षा का वचन देने के बाद एक दिन पाबूजी अमरकोट के सोढा राणा सूरजमल के यहाँ ठहरे हुए थे | सोढ़ी राजकुमारी ने जब उस बांके वीर पाबूजी को देखा तो उसके मन में उनसे शादी करने की इच्छा उत्पन्न हुई तथा अपनी सहेलियों के माध्यम से उसने यह प्रस्ताव अपनी माँ के समक्ष रखा | पाबूजी के समक्ष जब यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने राजकुमारी को जबाब भेजा कि 'मेरा सिर तो बिका हुआ है ,विधवा बनना है तो विवाह करना | 'लेकिन उस वीर ललना का प्रत्युतर था 'जिसके शरीर पर रहने वाला सिर उसका खुद का नहीं ,वह अमर है | उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनना पड़ता | विधवा तो उसको बनना पड़ता है जो पति का साथ छोड़ देती है |' और शादी तय हो गई | किन्तु जिस समय पाबूजी ने तीसरा फेरा लिया ,ठीक उसी समय केसर कालवी घोड़ी हिन् हिना उठी | चारणी पर संकट आ गया था | चारणी ने जींदराव खिंची को केसर कालवी घोड़ी देने से मना कर दिया था ,इसी नाराजगी के कारण आज मौका देखकर उसने चारणी की गायों को घेर लिया था |संकट के संकेत (घोड़ी की हिन्-हिनाहट)को सुनते ही वीर पाबूजी विवाह के फेरों को बीच में ही छोड़कर गठ्जोड़े को काट कर चारणी को दिए वचन की रक्षा के लिए चारणी के संकट को दूर-दूर करने चल पड़े | ब्राह्मण कहता ही रह गया कि अभी तीन ही फेरे हुए चौथा बाकी है ,पर कर्तव्य मार्ग के उस बटोही को तो केवल कर्तव्य की पुकार सुनाई दे रही थी | जिसे सुनकर वह चल दिया; सुहागरात की इंद्र धनुषीय शय्या के लोभ को ठोकर मार कर,रंगारंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारों की उपेक्षा कर,कंकंण डोरों को बिना खोले ही |और वह चला गया -क्रोधित नारद की वीणा के तार की तरह झनझनाता हुआ,भागीरथ के हठ की तरह बल खाता हुआ,उत्तेजित भीष्म की प्रतिज्ञा के समान कठोर होकर केसर कालवी घोड़ी पर सवार होकर वह जिंदराव खिंची से जा भिड़ा,गायें छुडवाकर अपने वचन का पालन किया किन्तु वीर-गति को प्राप्त हुआ |इधर सोढ़ी राजकुमारी भी हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गस्थ पति के साथ शेष फेरे पूरे करने के लिए अग्नि स्नान करके स्वर्ग पलायन कर गई | इण ओसर परणी नहीं , अजको जुंझ्यो आय |सखी सजावो साज सह, सुरगां परणू जाय || शत्रु जूझने के लिए चढ़ आया | अत: इस अवसर तो विवाह सम्पूर्ण नहीं हो सका | हे सखी ! तुम सती होने का सब साज सजाओ ताकि मैं स्वर्ग में जाकर अपने पति का वरण कर लूँ

saaabhar... http://www.gyandarpan.com/2010/09/blog-post_25.html 
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