राजस्थान की वीर-नारियां
भारत एक विकासोन्मुखी देश है। यहाँ के निवासी केवल भौतिक ही नहीं अभौतिक अर्थात आध्यात्मिक विकास की ओर भी जागरूक रहते हैं। हम केवल धन की बात नहीं करते, हमारी संस्कृति व परंपरा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की बात करती है। हमारे यहाँ शरीर ही नहीं आत्मिक शक्ति के विकास पर पर्याप्त दिया जाता है। आत्मा के स्तर पर सभी प्राणियों को एक ही स्तर पर माना जाता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास करके पूर्णता अर्थात परमात्मा तक पहुँचने के प्रयत्न करके अपने आप को परमात्मा से एकाकार कर सकता है। धर्म, संप्रदाय, जाति या लिंग के आधार पर विकास में कोई अन्तर नहीं होता। नर हो या नारी सभी को उनकी प्रकृति के अनुसार विकास के समान अवसर उपलब्ध होते हैं। परमात्मा के साथ संबन्ध स्थापित करने का मार्ग केवल पूजा-पाठ से होकर ही नहीं जाता, हमारी मान्यता है कि व्यक्ति किसी भी मार्ग से परमात्मा के पास पहुँच सकता है। हमारे यहाँ पूजा को ही नहीं, युद्ध को भी स्वर्ग का साधन माना गया है। भारत भूमि को वीर प्रसू कहा जाता है।
केवल संसार से विराग अर्थात संन्यास ही धर्म का मार्ग नहीं है, युद्ध भी धर्म का का मार्ग है। देश व समाज के लिए युद्ध करते हुए प्राण उत्सर्ग करने वाले भी वीरगति को प्राप्त होते हैं। गीता में भी भगवान कृष्ण भक्ति योग, ज्ञान योग व कर्म योग का उपदेश देते हुए अर्जुन को युद्ध के लिए ही तैयार करते हैं। वस्तुत: सम्पूर्ण जीवन ही एक संग्राम है। इस संग्राम को जो देश व समाज के हित में लड़ते हैं वे इस लोक में ही नहीं परलोक में भी श्रेष्ठ स्थान पाते हैं। ऐसा भारतीय दर्शन का मानना है। वीरता भी धर्म का एक आवश्यक अंग है। वीरता के पथ को अंगीकार करने वाले वीर व वीरांगनाओं की भारत में कमी नहीं रही है।
केवल राजपूतों या राज-परिवारों तक ही वीरता सीमित नहीं होती। आवश्यकता पड़ने पर भारत के किसान भी हल को ही औजार बनाकर आगे आते हैं। हाथों को चूढ़ियों से सजाने वाली भारतीय नारी भी वीरता में कभी पीछे नहीं रही हैं। नारियों ने आवश्यकतानुसार घर को सभांलकर जहाँ पुरूष को शक्तिशाली बनाया है, वहीं आवश्यकतानुसार स्वयं आगे बढ़कर भी दुष्टों को धूल चटाई है। अभिमानियों का अभिमान भंग किया है।
यद्यपि संपूर्ण भारत भूमि ही नर-नारियों की वीरता की कहानी कहती है, तथापि राजस्थान की माटी में बहादुरी व साहस कूट-कूट कर भरा है। यहाँ की नारियों की बात करें तो ये भारत की वीरांगनाओं में विशेष स्थान रखती हैं। वैदिक युग से लेकर मुगल काल तक ही नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी राजस्थान की वीरांगनाओं का योगदान स्तुत्य रहा है। राजस्थान में ऐसी वीरांगनाओं का इतिहास मिलता है जिनके शौर्य और बलिदान की गाथाएँ दन्तकथा बनकर आज भी घर-घर में सुनी जाती हैं। यहाँ माताएं पालने में ही शिशुओं को देशभक्ति की लोरियां सुनाती रही हैं। अपने पति व भाइयों को खुशी-खुशी न केवल लड़ने के लिए युद्ध के लिए टीका लगाकर विदा करती रही हैं वरन् उनके कमजोर पड़ने पर उन्हें धिक्कारा व दुत्कारा भी है। यही नहीं वे युद्धक्षेत्र में उनकी याद करके कमजोर न पड़े इस उद्देश्य से अपना बलिदान भी दिया है। समय-समय पर मातृभूमि की रक्षा के लिए राजस्थान की नारियां बलिदान देने से पीछे नहीं हटी हैं। राजस्थान की नारियों में त्याग व बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी है। अपने परिवार के लिए प्रेम व वात्सल्य की बर्षा करने वाली नारी अपनी व अपने परिवार की आन व शान की रक्षा की खातिर दुर्गा व चण्डी का रूप भी धारण करती है। इस प्रकार के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
भारत एक विकासोन्मुखी देश है। यहाँ के निवासी केवल भौतिक ही नहीं अभौतिक अर्थात आध्यात्मिक विकास की ओर भी जागरूक रहते हैं। हम केवल धन की बात नहीं करते, हमारी संस्कृति व परंपरा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की बात करती है। हमारे यहाँ शरीर ही नहीं आत्मिक शक्ति के विकास पर पर्याप्त दिया जाता है। आत्मा के स्तर पर सभी प्राणियों को एक ही स्तर पर माना जाता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास करके पूर्णता अर्थात परमात्मा तक पहुँचने के प्रयत्न करके अपने आप को परमात्मा से एकाकार कर सकता है। धर्म, संप्रदाय, जाति या लिंग के आधार पर विकास में कोई अन्तर नहीं होता। नर हो या नारी सभी को उनकी प्रकृति के अनुसार विकास के समान अवसर उपलब्ध होते हैं। परमात्मा के साथ संबन्ध स्थापित करने का मार्ग केवल पूजा-पाठ से होकर ही नहीं जाता, हमारी मान्यता है कि व्यक्ति किसी भी मार्ग से परमात्मा के पास पहुँच सकता है। हमारे यहाँ पूजा को ही नहीं, युद्ध को भी स्वर्ग का साधन माना गया है। भारत भूमि को वीर प्रसू कहा जाता है।
केवल संसार से विराग अर्थात संन्यास ही धर्म का मार्ग नहीं है, युद्ध भी धर्म का का मार्ग है। देश व समाज के लिए युद्ध करते हुए प्राण उत्सर्ग करने वाले भी वीरगति को प्राप्त होते हैं। गीता में भी भगवान कृष्ण भक्ति योग, ज्ञान योग व कर्म योग का उपदेश देते हुए अर्जुन को युद्ध के लिए ही तैयार करते हैं। वस्तुत: सम्पूर्ण जीवन ही एक संग्राम है। इस संग्राम को जो देश व समाज के हित में लड़ते हैं वे इस लोक में ही नहीं परलोक में भी श्रेष्ठ स्थान पाते हैं। ऐसा भारतीय दर्शन का मानना है। वीरता भी धर्म का एक आवश्यक अंग है। वीरता के पथ को अंगीकार करने वाले वीर व वीरांगनाओं की भारत में कमी नहीं रही है।
केवल राजपूतों या राज-परिवारों तक ही वीरता सीमित नहीं होती। आवश्यकता पड़ने पर भारत के किसान भी हल को ही औजार बनाकर आगे आते हैं। हाथों को चूढ़ियों से सजाने वाली भारतीय नारी भी वीरता में कभी पीछे नहीं रही हैं। नारियों ने आवश्यकतानुसार घर को सभांलकर जहाँ पुरूष को शक्तिशाली बनाया है, वहीं आवश्यकतानुसार स्वयं आगे बढ़कर भी दुष्टों को धूल चटाई है। अभिमानियों का अभिमान भंग किया है।
यद्यपि संपूर्ण भारत भूमि ही नर-नारियों की वीरता की कहानी कहती है, तथापि राजस्थान की माटी में बहादुरी व साहस कूट-कूट कर भरा है। यहाँ की नारियों की बात करें तो ये भारत की वीरांगनाओं में विशेष स्थान रखती हैं। वैदिक युग से लेकर मुगल काल तक ही नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी राजस्थान की वीरांगनाओं का योगदान स्तुत्य रहा है। राजस्थान में ऐसी वीरांगनाओं का इतिहास मिलता है जिनके शौर्य और बलिदान की गाथाएँ दन्तकथा बनकर आज भी घर-घर में सुनी जाती हैं। यहाँ माताएं पालने में ही शिशुओं को देशभक्ति की लोरियां सुनाती रही हैं। अपने पति व भाइयों को खुशी-खुशी न केवल लड़ने के लिए युद्ध के लिए टीका लगाकर विदा करती रही हैं वरन् उनके कमजोर पड़ने पर उन्हें धिक्कारा व दुत्कारा भी है। यही नहीं वे युद्धक्षेत्र में उनकी याद करके कमजोर न पड़े इस उद्देश्य से अपना बलिदान भी दिया है। समय-समय पर मातृभूमि की रक्षा के लिए राजस्थान की नारियां बलिदान देने से पीछे नहीं हटी हैं। राजस्थान की नारियों में त्याग व बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी है। अपने परिवार के लिए प्रेम व वात्सल्य की बर्षा करने वाली नारी अपनी व अपने परिवार की आन व शान की रक्षा की खातिर दुर्गा व चण्डी का रूप भी धारण करती है। इस प्रकार के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
राजस्थान की रानी पद्मिनी जहाँ काव्य में सौन्दर्य का प्रतिमान बनकर सामने आती हैं। वही जौहर व्रत के साथ वीरांगना रूप भी देखने को मिलता है। उनके पति युद्ध क्षेत्र में नि:श्चिंत होकर मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध कर सकें, इस उद्देश्य के लिए जीवित ही चिता की भेंट चढ़ जाना, युद्ध क्षेत्र में वीरगति प्राप्त करने से भी अधिक दुष्कर कार्य है। राजकुमारी रत्नावती ने किस प्रकार किले की रक्षा में शत्रु से लोहा लिया और बन्दी सैनिकों के प्रति भी राजधर्म निभाया वर्तमान में बड़े-बड़े तथाकथित देशभक्तों के लिए दा¡तों तले उंगली दबाने वाली बात हो सकती है। वागदत्ता विद्युल्लता द्वारा अपने होने वाले देशद्रोही पति के स्पर्श से बचने के लिए अपने प्राणों का ही बलिदान दे देना, आज के भोगवादी युग में केवल किवदंती लगता है। कुछ आधुनिकाएं इसे मूर्खता भी कह सकती हैं किन्तु इससे उनके बलिदान का मूल्य कम नहीं हो जाता। राज्य के सम्मान के लिए जहर पीने वाली कृष्णा ही नहीं, महाराणा प्रताप को उनके धर्म पर दृढ़ करने वाली बालिका चम्पा के बलिदान वर्तमान भटकती हुई पीढ़ी के लिए आदर्श होने चाहिए। रानी कर्मवती और हाड़ी रानी जैसी राजपुतानियाँ ही नहीं सामान्य वनवासी बालिका कालीबाई व पन्नाधाय जैसी नारियां भी बलिदान देने से पीछे नहीं रहीं। अपनी वीरता व शक्ति के बल पर ही एक सामान्य कृषक कन्या प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दे सकी।
कृषक कन्या हम्मीर माता :- कृषक कन्या हम्मीर माता जब अपने खेतों की रखवाली पर थी, उसने देखा कि चित्तौड़ के महाराणा लक्ष्मणसिंह के सबसे बड़े कुमार अरिसिंहजी अपने साथियों के साथ घोड़ा दौड़ाये एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए चले आ रहे हैं। सूअर डरकर उसी के बाजरे के खेत में घुस गया। कन्या अपने मचान से उतरी और घोड़ों के सामने खड़ी हो गयी। बड़ी ही विनम्रता के साथ बोली, `राजकुमार! आपलोग मेरे खेत में घोड़ों को ले जायेंगे तो मेरी खेती नष्ट हो जायेगी। आप यहाँ रुकें, मैं सूअर को मारकर ला देती हू¡।´
राजकुमार आश्चर्य से देखते रह गये। उन्होंने सोचा यह लड़की नि:शस्त्र सूअर को कैसे मारकर लायेगी? उस लड़की ने बाजरे के एक पेड़ को उखाड़कर तेज किया और खेत में निर्भय होकर घुस गयी। थोड़ी ही देर में उसने सूअर को मारकर राजकुमार के सामने ला पटका। राजकुमार का काफिला लौटकर पड़ाव पर आ गया। जब वे लोग स्नान कर रहे थे, तब एक पत्थर आकर उनके एक घोड़े के पैर में लगा, जिससे घोड़े का पैर टूट गया। वह पत्थर उसी कृषक-कन्या ने अपने मचान से पक्षियों को उड़ाने के लिए फेंका था। राजकुमार के घोड़े की दशा देखकर वह दौड़कर आई और क्षमा मा¡गने लगी।
राजकुमार बोले, `तुम्हारी शक्ति देखकर मैं आश्चर्य मैं पड़ गया हू¡। मुझे दु:ख है कि तुम्हें देने योग्य कोई पुरस्कार इस समय मेरे पास नहीं है।´
कृषक-कन्या ने विनम्रता से कहा, ``अपनी गरीब प्रजा पर कृपा रखें, यही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार है।´´ इतना कहकर वह चली गई। संयोग से जब राजकुमार व उनके साथी सायंकाल घोड़ों पर बैठे जा रहे थे, तब उन्होंने देखा, वही लड़की सिर पर दूध की मटकी रखे दोनों हाथों से दो भैंसों की रस्सियाँ पकड़े जा रही है। राजकुमार के एक साथी ने विनोद में उसकी मटकी गिराने के लिए जैसे ही अपना घोड़ा आगे बढ़ाया। उस लड़की ने उसका इरादा समझ लिया और अपने हाथ में पकड़ी भैंस की रस्सी को इस प्रकार फेंका कि उस रस्सी में उस सवार के घोड़े का पैर उलझ गया और घोड़े सहित वह भूमि पर आ गिरा।
निर्भय बालिका के साहस पर राजकुमार अरिसिंह मोहित हो गये, उन्होंने पता लगा लिया कि यह एक क्षत्रिय कन्या है। स्वयं राजकुमार ने उसके पिता के पास जाकर विवाह की इच्छा प्रकट की और वह साहसी वीर बालिका एक दिन चित्तौड़ की महारानी बनी जिसने प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दिया।
पन्नाधाय :- पन्नाधाय के नाम को कौन नहीं जानता? वे राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मा¡ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना धाय मा¡ कहलाई। पन्ना का पुत्र व राजकुमार साथ-साथ बड़े हुए। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला अत: उसे पुत्र ही मानती थी।
दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। उसने एक-एक कर राणा के वंशजों को मार डाला। एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या कर, बनवीर उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई।
पन्ना राजवंश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महलों से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उसके पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उदयसिंह के बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंक की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।
पन्ना अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। धन्य है स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आ¡खों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
वीरांगना कालीबाई :- वीरांगनाओं के इतिहास में केवल राजपूतनियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई है। यहाँ तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पड़ने पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चा¡द लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियाँ सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रहीं हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामो में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का।
स्वाधीनता आन्दोलन चल रहा था। वनवासी अंचल को गुलामी का अँधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राज्य सत्ता कमजोर होगी।
राजा ने अपने क्षेत्र के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बन्द करने का आदेश दिया। नानाभाई डूंगरपुर जिले के वनवासियों के मध्य शिक्षा के प्रसार के काम में लगे थे। वे गांव-गांव जाकर वनवासियों को शिक्षा का महत्व समझाते व पाठशालायें खोलते। डूंगरपुर के महाराज लक्ष्मण सिंह ने क्षेत्र के 25 वर्ष पुराने छात्रावास को बन्द करवाने के बाद नानाभाई के पास आदेश भिजवाया कि वे अपनी पाठशालायें बन्द करें। लेकिन नानाभाई नहीं माने।
अवज्ञा से क्षुब्ध मजिस्ट्रेट 19 जून 1947 को पाठशाला पहुंचे , जहाँ नानाभाई का घर भी था। उस समय नानाभाई अन्य अध्यापक सेंगाभाई से बातचीत कर रहे थे। मजिस्ट्रेट ने उन्हें बुलाया और धमकाते हुए आज्ञा दी कि पाठशाला बन्द करके चाबी उन्हें दें।
पाठशाला बन्द करना नानाभाई को स्वीकार नहीं था। अत: नानाभाई व उनके साथी अध्यापकों को पीटा जाने लगा। मजिस्ट्रेट उन्हें पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगा। इतने में ही एक नन्ही बालिका जो उसी समय घास काट कर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, ``अरे, तुम लोग मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो? छाड़ दो! इन्हें छोड़ दो!
हाथ में हंसियां, पाँव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बन्दूकों से घबराई और न पुलिस की डरावनी धमकियों से। उसे तो बस अपने मास्टरजी दिखाई दे रहे थे। बालिका को देखकर वनवासी भी उत्साहित हो उठे और पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बौखलाकर बन्दूक तानकर कहा, ``ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दू¡गा।´´
लड़की ने उसकी बात को अनुसुना कर ट्रक के पीछे दौड़ते हुए वह रस्सी काट दी, जिससे बांधकर नानाभाठ व सेंगाभाई को घसीटा जा रहा था। पुलिस की बन्दूक गरजी और बालिका की जान ले ली। कालीबाई के मरते ही वनवासियों ने क्रोधोन्मत्त हो मारू बाजा बजाना शुरु कर दिया और पुलिस की बन्दूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के दौड़े। गोलियों से कई अन्य भील महिलायें भी घायल हुईं। अपनी दुर्गति का अन्दाजा लगा, पुलिस व मजिस्ट्रेट जीप में भाग निकले।
घायलों को तीस मील दूर अस्पताल में इलाज के लिए ले जाया गया। कालीबाई के साथ घायल हुईं अन्य भील महिलायें नवलीबाई, मोगीबाई, होमलीबाई तथा अध्यापक सेंगाभाई बच गये। वे स्वतंत्रता के बाद भी भीलों के मध्य काम करते रहे, किन्तु नानाभाई को नहीं बचाया जा सका और वीर बाला कालीबाई भी नानाभाई का अनुशरण करते हुए चिर-निद्रा में लीन हो गई। डू¡गरपुर में नानाभाई व कालीबाई की स्मृति में उद्यान बनाया गया है और उनकी मूर्तिया भी स्थापित की गईं हैं।
कृषक कन्या हम्मीर माता :- कृषक कन्या हम्मीर माता जब अपने खेतों की रखवाली पर थी, उसने देखा कि चित्तौड़ के महाराणा लक्ष्मणसिंह के सबसे बड़े कुमार अरिसिंहजी अपने साथियों के साथ घोड़ा दौड़ाये एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए चले आ रहे हैं। सूअर डरकर उसी के बाजरे के खेत में घुस गया। कन्या अपने मचान से उतरी और घोड़ों के सामने खड़ी हो गयी। बड़ी ही विनम्रता के साथ बोली, `राजकुमार! आपलोग मेरे खेत में घोड़ों को ले जायेंगे तो मेरी खेती नष्ट हो जायेगी। आप यहाँ रुकें, मैं सूअर को मारकर ला देती हू¡।´
राजकुमार आश्चर्य से देखते रह गये। उन्होंने सोचा यह लड़की नि:शस्त्र सूअर को कैसे मारकर लायेगी? उस लड़की ने बाजरे के एक पेड़ को उखाड़कर तेज किया और खेत में निर्भय होकर घुस गयी। थोड़ी ही देर में उसने सूअर को मारकर राजकुमार के सामने ला पटका। राजकुमार का काफिला लौटकर पड़ाव पर आ गया। जब वे लोग स्नान कर रहे थे, तब एक पत्थर आकर उनके एक घोड़े के पैर में लगा, जिससे घोड़े का पैर टूट गया। वह पत्थर उसी कृषक-कन्या ने अपने मचान से पक्षियों को उड़ाने के लिए फेंका था। राजकुमार के घोड़े की दशा देखकर वह दौड़कर आई और क्षमा मा¡गने लगी।
राजकुमार बोले, `तुम्हारी शक्ति देखकर मैं आश्चर्य मैं पड़ गया हू¡। मुझे दु:ख है कि तुम्हें देने योग्य कोई पुरस्कार इस समय मेरे पास नहीं है।´
कृषक-कन्या ने विनम्रता से कहा, ``अपनी गरीब प्रजा पर कृपा रखें, यही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार है।´´ इतना कहकर वह चली गई। संयोग से जब राजकुमार व उनके साथी सायंकाल घोड़ों पर बैठे जा रहे थे, तब उन्होंने देखा, वही लड़की सिर पर दूध की मटकी रखे दोनों हाथों से दो भैंसों की रस्सियाँ पकड़े जा रही है। राजकुमार के एक साथी ने विनोद में उसकी मटकी गिराने के लिए जैसे ही अपना घोड़ा आगे बढ़ाया। उस लड़की ने उसका इरादा समझ लिया और अपने हाथ में पकड़ी भैंस की रस्सी को इस प्रकार फेंका कि उस रस्सी में उस सवार के घोड़े का पैर उलझ गया और घोड़े सहित वह भूमि पर आ गिरा।
निर्भय बालिका के साहस पर राजकुमार अरिसिंह मोहित हो गये, उन्होंने पता लगा लिया कि यह एक क्षत्रिय कन्या है। स्वयं राजकुमार ने उसके पिता के पास जाकर विवाह की इच्छा प्रकट की और वह साहसी वीर बालिका एक दिन चित्तौड़ की महारानी बनी जिसने प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दिया।
पन्नाधाय :- पन्नाधाय के नाम को कौन नहीं जानता? वे राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मा¡ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना धाय मा¡ कहलाई। पन्ना का पुत्र व राजकुमार साथ-साथ बड़े हुए। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला अत: उसे पुत्र ही मानती थी।
दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। उसने एक-एक कर राणा के वंशजों को मार डाला। एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या कर, बनवीर उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई।
पन्ना राजवंश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महलों से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उसके पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उदयसिंह के बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंक की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।
पन्ना अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। धन्य है स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आ¡खों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
वीरांगना कालीबाई :- वीरांगनाओं के इतिहास में केवल राजपूतनियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई है। यहाँ तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पड़ने पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चा¡द लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियाँ सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रहीं हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामो में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का।
स्वाधीनता आन्दोलन चल रहा था। वनवासी अंचल को गुलामी का अँधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राज्य सत्ता कमजोर होगी।
राजा ने अपने क्षेत्र के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बन्द करने का आदेश दिया। नानाभाई डूंगरपुर जिले के वनवासियों के मध्य शिक्षा के प्रसार के काम में लगे थे। वे गांव-गांव जाकर वनवासियों को शिक्षा का महत्व समझाते व पाठशालायें खोलते। डूंगरपुर के महाराज लक्ष्मण सिंह ने क्षेत्र के 25 वर्ष पुराने छात्रावास को बन्द करवाने के बाद नानाभाई के पास आदेश भिजवाया कि वे अपनी पाठशालायें बन्द करें। लेकिन नानाभाई नहीं माने।
अवज्ञा से क्षुब्ध मजिस्ट्रेट 19 जून 1947 को पाठशाला पहुंचे , जहाँ नानाभाई का घर भी था। उस समय नानाभाई अन्य अध्यापक सेंगाभाई से बातचीत कर रहे थे। मजिस्ट्रेट ने उन्हें बुलाया और धमकाते हुए आज्ञा दी कि पाठशाला बन्द करके चाबी उन्हें दें।
पाठशाला बन्द करना नानाभाई को स्वीकार नहीं था। अत: नानाभाई व उनके साथी अध्यापकों को पीटा जाने लगा। मजिस्ट्रेट उन्हें पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगा। इतने में ही एक नन्ही बालिका जो उसी समय घास काट कर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, ``अरे, तुम लोग मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो? छाड़ दो! इन्हें छोड़ दो!
हाथ में हंसियां, पाँव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बन्दूकों से घबराई और न पुलिस की डरावनी धमकियों से। उसे तो बस अपने मास्टरजी दिखाई दे रहे थे। बालिका को देखकर वनवासी भी उत्साहित हो उठे और पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बौखलाकर बन्दूक तानकर कहा, ``ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दू¡गा।´´
लड़की ने उसकी बात को अनुसुना कर ट्रक के पीछे दौड़ते हुए वह रस्सी काट दी, जिससे बांधकर नानाभाठ व सेंगाभाई को घसीटा जा रहा था। पुलिस की बन्दूक गरजी और बालिका की जान ले ली। कालीबाई के मरते ही वनवासियों ने क्रोधोन्मत्त हो मारू बाजा बजाना शुरु कर दिया और पुलिस की बन्दूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के दौड़े। गोलियों से कई अन्य भील महिलायें भी घायल हुईं। अपनी दुर्गति का अन्दाजा लगा, पुलिस व मजिस्ट्रेट जीप में भाग निकले।
घायलों को तीस मील दूर अस्पताल में इलाज के लिए ले जाया गया। कालीबाई के साथ घायल हुईं अन्य भील महिलायें नवलीबाई, मोगीबाई, होमलीबाई तथा अध्यापक सेंगाभाई बच गये। वे स्वतंत्रता के बाद भी भीलों के मध्य काम करते रहे, किन्तु नानाभाई को नहीं बचाया जा सका और वीर बाला कालीबाई भी नानाभाई का अनुशरण करते हुए चिर-निद्रा में लीन हो गई। डू¡गरपुर में नानाभाई व कालीबाई की स्मृति में उद्यान बनाया गया है और उनकी मूर्तिया भी स्थापित की गईं हैं।
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