मंगलवार, 29 नवंबर 2011

घाणियों में तैयार होने लगा सर्दी का ‘मारवाड़ी मेवा’


घाणियों में तैयार होने लगा सर्दी का ‘मारवाड़ी मेवा’

बाड़मेर सहित आसपास के गांवों में बैलों से चलाई जाने वाली घाणियों में तिल्ली की सेली बनाने का कार्य शुरू




बाड़मेर सर्दी की दस्तक के साथ ही शहर सहित क्षेत्र के कुछ गांवों में वर्षों पुरानी परंपरा के चलते बैलों से चलाई जाने वाली घाणियां शुरू हो गई हैं। हल्की सर्दी के प्रारंभ होते ही इन घाणियों में तिल्ली की पिसाई कर उसका तेल निकालने के साथ (मारवाड़ी मेवा) सेली तैयार की जाती है। वैसे पहले के मुकाबले अब इन घाणियों का चलन काफी कम हुआ है, लेकिन शुद्धता व जायकेदार स्वाद को लेकर आज भी इसमें पीसी जाने वाली तिल्ली की सेली को ही अधिकांश लोग पसंद करते हैं। बैलों से चलने वाली घाणियों का क्रेज कम होने की वजह यह बताई जा रही है कि उसमें तिलों की पिसाई धीमी गति से होने पर समय अधिक व्यतीत होता है। इलेक्ट्रिक मोटर व डीजल इंजन से संचालित घाणियों में इसके लिए बहुत कम समय लगता है। इसके बावजूद सर्दी के मौसम में अधिकांश लोग आधुनिक घाणियों के बजाय बैल की घाणी से पीसी जाने वाले तिल्ली तेल व उसकी सेली को ही पसंद करते हैं। इन दिनों शहर सहित आसपास के क्षेत्रों में सेली की मांग बढ़ी हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए घाणी संचालक इस कार्य को अंजाम देने में जुटे हुए हैं।

सेली का निर्यात गुजरात व महाराष्ट्र में भी
शहर एवं आसपास के गांवों में तिल्ली से बनी हुई खाद्य सामग्रियों में सेली का उपयोग ही अधिक हो रहा है। मारवाड़ क्षेत्र में यह सर्वाधिक प्रचलित है। घाणी से निर्मित फीकी सेली 160 रुपए तथा मीठी सेली 140 रुपए के भाव से बिक रही है। यहां निर्मित होने वाली सेली पड़ोसी राज्य गुजरात व महाराष्ट्र के मुंबई पुना सहित विभिन्न शहरों में खरीद कर लोग ले जाते है। तिल्ली की इस सेली को सर्दी का मारवाड़ी मेवा भी कहते हैं। यहां परंपरागत तरीकों से सेली बनाने वाले व्यक्तियों की संख्या पूर्व में एक दर्जन के करीब थी, लेकिन घाणियां बंद हो जाने से इस समय इसकी संख्या घट कर अब एक-दो ही रह गई है।

कम हो रही संख्या

सर्दी के दौरान कई लोग तो बाजरा व मक्की की रोटियां भी तिल्ली के तेल के साथ चूरमा बनाकर खाते थे, लेकिन धीरे-धीरे आधुनिक मशीनों की चलन बढऩे से इन घाणियों की संख्या घटती गई और वर्तमान में तो इक्का-दुक्का ही यह घाणियां रह गई हैं। घाणियों से निकाले जाने वाले तिल्ली के तेल व सेली के बारे में बाड़मेर निवासी सफी तेली ने बताया कि बैलों से चलाई जाने वाली सभी घाणियां लकड़े से बनी हुई होती हैं, साथ ही इसमें तिल्ली की पिसाई के समय भी पूरा ध्यान रखा जाता है ताकि शुद्ध तेल व सेली तैयार हो सके। ऐसे तैयार की जाती है सेली
बैल की घाणी में पिसाई होने से बनने वाली तिल्ली सेली पौष्टिक होती है। इसे बनाने के लिए पहले तिल्ली की सफाई की जाती है, इसके बाद उसे घाणी में पिसाई के लिए डाला जाता है तथा जरूरत अनुसार उसमें गर्म पानी मिलाया जाता है ताकि उसकी पिसाई पूरी तरह से हो सके। घाणी से तेल को अलग कर शेष रहने वाले अवशेष को ही सेली कहते हैं। हालांकि सेली से पूरा तेल नहीं लिया जाता है, ताकि खाने में स्वादिष्ट और लजीज हो सके। सेली में गुड़ व शक्कर मिलाकर उसे मीठा किया जाता है। इसके तेल की बिक्री प्रति किलो की दर 240 रुपए वर्तमान में चल रही है। शहर में तेलियो का वास पर सफी तेली

की घाणी तो पिछले लंबे समय से अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए है।

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