वीर दुर्गादास जयन्ती 13 अगस्त पर विशेष
वीर शिरोमणी दुर्गादास
माई अहेड़ा पूत जण जेहड़ा दुर्गादास
ख्यातो में दुर्गादास मारवाड़ के रक्षक की उपाधि से विभूषित राष्ट्रीय वीर दुर्गादास राठौड़ का व्यक्त्वि कृतित्व ना केवल ऐतिहासिक दृष्टि से उल्लेखनीय है बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी अभिनन्दनीय है। वीर दुर्गादास इस जिले के गौरव पुरुष है। जिन्होने इतिहास रचा। मुगलो के दमन चक्र को कुचल कर मारवाड़ राजघराने का अस्तित्व बनाए रखा।
वीर दुर्गादास की कर्मभूमि के रुप में कोरना में (कनाना) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। सौभाग्य से कनाना बाड़मेर जिले का हिस्सा है। बाड़मेर जिले में जन्म लेकर वीर दुर्गादास ने बाड़मेर की धरा पर उपकार किया।
13 अगस्त 1638 को सालवा कला में द्वितीय सावन सुदी 14 वि.स. 1695 में उनका जन्म आसकारण जी के परिवार में हुआ। जोधपुर नरेश जसंवतसिंह के सामान्त एवं सेना नायक का पुत्र होने को गौरव उनके साथ था।
सादगी पसन्द दुर्गादास बचपन से निडर थे। बहुप्रचलित कथानुसार जोधपुर महाराज जसवन्तसिंह के ऊट कनाना में उनके खेतो में घुस गए तथा फसले बरबाद करने लगे। विनम्रता से ऊट पालको को ऐसा करने से रोकने का आग्रह किया। पालकों न जवाब दिया कि महाराज जसवन्तसिंह जी के ऊट है। जहां चाहेंगे मुंह मारेंगे उन्हे कौन रोकेगा। कमर बन्द में लटकी तलवार की मूठ पर हाथ गया। तलवार म्यान से बाहर। एक ही झटके में ऊट का सिर धड़ से अलग होकर खेत की जमीन पर गिर पड़ा। ऊट पालक महाराज जसवन्तसिंह के दरबार में शिकायत लेकर पहुंचे। महाराज-सा ने उस बालक को बुलाया। बालक की स्पष्ट वादिता और निडरता देख अपनी सेवा में रख लिया स्पष्ट वादिता के चलते ही बालक दुर्गादास को उनके पिता आसकरण ने परित्याग किया था। दुर्गा घर से उपेक्षित था। 1665 में महाराज जसवन्तसिंह की सेना में आने के बाद मुगल साम्राज्य की खिदमत में उक्सर आते जाते रहे। इसी बीच मुगल सम्राट शाहजहां रुग्णता का शिकार हुआ। उसके पुत्रो में उतराधिकार को लेकर संघर्ष प्रारम्भ हो गया। 16 अप्रेल 1658 को धरमत (उज्जैन) के युद्व में औरगंजेब और मुरा की संयुक्त सेना तथा महाराज जसवन्तसिंह के सेनापतित्व में बादशाही सेना के बीच घमासान युद्व हुआ इस युद्व में वीर दुर्गादास ने अदम्य साहस, अद्वितीय रण कौशल शौर्य का प्रदर्शन कर अपनी धाक जमा ली।
रतन रासो में समकालीन कवि कुम्भकर्ण सान्दू ने लिख है कि वीर दुर्गादास ने एक के बाद एक चार घोड़ो की सवारी की जो मारे गए। अन्त में पांचवे घोड़े पर सवार हुए। उसके मर जाने पर घायल दुर्गादास रणभूमि में गिर पड़े मानो एक और भीष्म शर शैया पर लेटा हो वीर दुर्गादास का जीवन गाथाओं से भरा पड़ा है। महाराज जसवन्तसिंह को औरगंजैब से जमरुद पेशावर अफगानिस्तान सैन्य चौकी पर थानेदार नियुक्त किया। महाराज की पेशावर में 28 नवम्बर 1678 को मृत्यु हो गई। उनके मरणोपरांत लाहौैर में 19 फरवरी में 1679 में उसके पुत्रो का जन्म हुआ। इनमे दलथम्मा की यात्रा की दोरान मृत्यु हो गई मगर अजीतसिंह जीवित रहे। महाराज जसवन्तसिंह की मृत्यु के बाद जोधपुर पर आधिपत्य स्थापित करने की नीति औरगंजेब ने अपनाई। कट्टर साम्प्रदायिकता में विश्वास रखने वाले औरगंजेब ने अजीतसिंह को षडयंत्र पूर्वक अपने पास बुला लिया मगर वापस जोधपुर नही भेजा। अजीतसिंह को बचाकर जसवन्तसिंह का वंश जिन्दा रखने की जिम्मेदारी वीर दुर्गादास को सौपी।
वीर दुर्गादास ने अपने प्राणो को अजीतसिंह की रक्षा में झोंक दिया। औरगंजेब के विभिन्न षड्यंत्रो व आक्रमणों का विफल कर अजीतसिंह को जीवित बचा कर जोधपुर राजसिंहासन सौंप दिया। अजीतसिंह स्वंय वीर दुर्गादास के सामने नतमस्तक हुए। वीर दुर्गादास जिसने जोधपुर रियासत के अस्तित्व को जिन्दा रखा। अदम्य साहस, शौर्य व वीरता के प्रतिक दुर्गादास इतिहास में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, नेपोलियन बोनापार्ट के समक्ष एक इतिहास पुरुष के रुप में अपनी गाथा आप बन गए। जिले का गौरव है कि वीर दुर्गादास ने बाड़मेर जिले के कनाना जो अपनी कर्म भूमि बनया। आज भी वीर दुर्गादास की गाथाये घर-घर में गाई जाती है। यहा कहावत आज भी प्रचलित है। ‘‘ माई अहेड़ा पूत जण जेहड़ा दुर्गादास‘‘ दुर्गादास ने औरगंजेब के पौत्र पोत्री का अपहरण कर सिवाना की छप्पन पहाड़ियों में कैद कर रखा था। छप्पन पहाड़ियों के सिवाना-हल्देश्वर मार्ग पर स्थित पीपलू गांव की पहाड़ी पर दुर्गादास ने औरगंजेब के पोते पोति का अपहरण कर कैद रखा मगर दुर्गादास ने औरगंजेब के पोते पोती को जो वात्सल्य दिया वह इतिहास में स्वर्णिम अक्षरो में दर्ज है।
पीपलू की पहाड़ी पर स्वंय दुर्गादास द्वारा बनाए ऐतिहासिक भवन खण्डहरो के रुप में तब्दील हो चुका है। सार सम्भाल के अभाव में ऐतिहासिक कमरे जिनमे दुर्गादास ने औरगंजेब के पोते एवं पोती काो शिक्षा दी यहां एक बड़ा कमरा बनाया गया था। जिसके मध्य दीवार कर एक कमरे में औरगजेब के पोते तथा दूसरे कमरे में पोती को कैद रखां कमरे के बाहर बैठकर दुर्गादास ने दोनो को शिक्षा दी। दुर्गादास ने उन दो की शक्ल तक नही देखी। शिक्षा देने बाद दुर्गादास ने दोनो को ससम्मान औरगंजेब को सौप दिया।
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