इस्लामाबाद।। लाहौर में सिख समुदाय को एक गुरुद्वारे में धार्मिक समारोह मनाने से रोक दिया गया। एक धार्मिक समूह ने अधिकारियों को यह समझा दिया कि मुस्लिमों के पवित्र दिन ' शब-ए- बरात ' को मनाना सिख समारोह से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
द एक्सपेस ट्रिब्यून में छपी खबर के अनुसार, बरेलवी समूह के प्रयासों के कारण सिखों के संगीत यंत्रों को बाहर फेंक दिया गया और और अनुयायियों को गुरुद्वारे में प्रवेश करने से रोक दिया गया। पुलिस को गुरूद्वारे के बाहर तैनात कर दिया गया ताकि वे शब ए बरात से पहले धामिर्क समारोह नहीं मना पाए।
सिख समुदाय 18वीं शताब्दी के एक संत की याद में एक समारोह का आयोजन करना चाह रहे थे। लाहौर के नौलखा बाजार में गुरुद्वारा शहीद भाई तारू सिंह सिख संत की याद में बनवाया गया था। सिख संत को 1745 में पंजाब के क्षत्रप जकरिया खान के आदेश पर फांसी पर चढ़ा दिया गया था। प्रत्येक जुलाई में सिख उनकी शाहदत की बरसी के मौके पर धार्मिक समारोह मनाते हैं।
हालांकि, विभाजन के बाद गुरुद्वारे पर खाली की गई संपत्ति की निगरानी करने वाले बोर्ड का नियंत्रण हो गया था, सिखों को कुछ प्रतिबंधों के साथ इसका उपयोग करने की इजाजत दे दी गई थी। चार साल पहले दावत-ए-इस्लामी ने दावा किया था कि गुरुद्वारा 15वीं शताब्दी के मुस्लिम संत पीर शाह काकू की मजार स्थल पर बनाया गया है। अखबार की खबर के अनुसार, समूह ने दावा किया कि काकू बाबा फरीदुद्दीन गंजशक्कर के पौत्र थे।
समूह के इस दावे को अखबार ने अनुचित दावा बताया कि क्योंकि गंजशक्कर का निधन 1280 में हुआ था जबकि काकू का निधन उसके करीब 200 साल बाद 1477 में हुआ था। सिख समुदाय ने गुरुद्वारे का नियंत्रण रखने वाले बोर्ड से संपर्क किया। बोर्ड ने दोनों समुदायों को अपनी मान्यताओं के अनुसार गुरुद्वारे में अपनी धार्मिक परंपराएं निभाने का मौका दे दिया। दावत-ए-इस्लामी प्रत्येक बृहस्पतिवार को दुआ करने के लिए इस स्थल का इस्तेमाल करता है, जबकि सिख साल में एक बार तारू सिंह की शहादत पर इसका प्रयोग करते हैं।
द एक्सपेस ट्रिब्यून में छपी खबर के अनुसार, बरेलवी समूह के प्रयासों के कारण सिखों के संगीत यंत्रों को बाहर फेंक दिया गया और और अनुयायियों को गुरुद्वारे में प्रवेश करने से रोक दिया गया। पुलिस को गुरूद्वारे के बाहर तैनात कर दिया गया ताकि वे शब ए बरात से पहले धामिर्क समारोह नहीं मना पाए।
सिख समुदाय 18वीं शताब्दी के एक संत की याद में एक समारोह का आयोजन करना चाह रहे थे। लाहौर के नौलखा बाजार में गुरुद्वारा शहीद भाई तारू सिंह सिख संत की याद में बनवाया गया था। सिख संत को 1745 में पंजाब के क्षत्रप जकरिया खान के आदेश पर फांसी पर चढ़ा दिया गया था। प्रत्येक जुलाई में सिख उनकी शाहदत की बरसी के मौके पर धार्मिक समारोह मनाते हैं।
हालांकि, विभाजन के बाद गुरुद्वारे पर खाली की गई संपत्ति की निगरानी करने वाले बोर्ड का नियंत्रण हो गया था, सिखों को कुछ प्रतिबंधों के साथ इसका उपयोग करने की इजाजत दे दी गई थी। चार साल पहले दावत-ए-इस्लामी ने दावा किया था कि गुरुद्वारा 15वीं शताब्दी के मुस्लिम संत पीर शाह काकू की मजार स्थल पर बनाया गया है। अखबार की खबर के अनुसार, समूह ने दावा किया कि काकू बाबा फरीदुद्दीन गंजशक्कर के पौत्र थे।
समूह के इस दावे को अखबार ने अनुचित दावा बताया कि क्योंकि गंजशक्कर का निधन 1280 में हुआ था जबकि काकू का निधन उसके करीब 200 साल बाद 1477 में हुआ था। सिख समुदाय ने गुरुद्वारे का नियंत्रण रखने वाले बोर्ड से संपर्क किया। बोर्ड ने दोनों समुदायों को अपनी मान्यताओं के अनुसार गुरुद्वारे में अपनी धार्मिक परंपराएं निभाने का मौका दे दिया। दावत-ए-इस्लामी प्रत्येक बृहस्पतिवार को दुआ करने के लिए इस स्थल का इस्तेमाल करता है, जबकि सिख साल में एक बार तारू सिंह की शहादत पर इसका प्रयोग करते हैं।
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