रविवार, 15 मई 2011

जैसलमेर की बहुमूल्य धरोहर लौद्रवा का जैन मंदिर

 लौद्रवा की स्थापना परमार राजपूतों द्वारा की गई थी। बाद में यह भाटियों के कब्जें में आ गया था।






लौद्रवा का जैन मंदिर कला की दृष्टि से बङ्ें महत्व का है। यह  मंदिर अपने खूबसूरत कलाकारी के लिए प्रसिद्ध है। खूबसूरत गढ़ी हुई मूर्तियाँ तथा पत्थर पर की गई नक्काशी, इस मंदिर को जैसलमेर की बहुमूल्य धरोहर बनाती है।  दूर से ऊँचा भव्य शिखर तथा इसमें स्थित कल्पवृक्ष दिखाई पङ्ने लगते हैं। इस मंदिर में गर्भगृह, सभा मंडप मुख मंडप आदि है। यह मंदिर काफी प्राचीन है तथा समय-समय पर इसका जीर्णोधार होता रहा है। मंदिर में प्रवेश करते ही चौक में एक भव्य पच्चीस फीट ऊँचा कलात्मक तोरण स्थित है। इस पर सुंदर आकृतियों का रुपांतन पर खुदाई का काम किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में सहसफण पार्श्वनाथ की श्याम मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह मूर्ति कसौटी पत्थर की बनी हुई है। गर्भगृह के मुख्य द्वार के निचले हिस्से में गणेश तथा कुबेर की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इसके खंभे विशाल हैं, जिसपर घट पल्लव की आकृतियां बनी हुई हैं। इस मूर्ति के ऊपर जङा हुआ हीरा मूर्ति के अनेक रुपों का दर्शन करवाता है।
इस मंदिर के चारों कोनों में एक-एक मंदिर बना हुआ है। मंदिर के दक्षिण-पूर्वी कोने पर आदिनाथ, दक्षिण-पश्चिमी कोने पर अजीतनाथ, उत्तर-पश्चिमी कोने पर संभवनाथ तथा उत्तर-पूर्व में चिंतामणी पार्श्वनाथ का मंदिर है। मूल मंदिर के पास कल्पवृक्ष सुशोभित है। मूल प्रासाद पर बना हुआ शिखर बङा आकर्षक है। तोरण द्वार, रंगमंडप, मूलमंदिर व अन्य चार मंदिर तथा उन पर निर्मित शिखर और कल्पवृक्ष सभी की एक इकाई के रुप में देखने पर इन सब की संरचना बङ्ी भव्य प्रतीत होती है। इस मंदिर में एक प्राचीन कलात्मक रथ रखा हुआ है, जिसमें चिंतामणि पाश्वनाथ स्वामी की मूर्ति गुजरात से यहां लाई गई थी।
लौद्रवा जो आज ध्वस्त स्थिति में है। प्राचीन काल में बङा समृद्ध था। यहाँ काल नदी के किनारे प्राचीन शिव मंदिर था। आज लगभग इसका तीन चौथाई भाग भूमिगत हो चुका है। यहाँ पंचमुखी शिवलिंग है। जिसकी तुलना ऐलिफेंटा गुहा व मध्य प्रदेश में मंदसौर से प्राप्त शिवलिंग से की जा सकती है। इसके अतिरिक्त विष्णु, लक्ष्मी, गणपति, शक्ति व कई पशु-पक्षियों की मूर्तियां भी रेत मे डूबी पङ्ी है। प्राचीन कला की दृष्टि से लौद्रवा का आज भी अत्यधिक महत्व है
 

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