शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

देश का नाम रोशन करें-जांगिड़

देश का नाम रोशन करें-जांगिड़
बाड़मेर। छात्राएं अवसर का लाभ उठाकर कठिन परिश्रम कर अपना हक प्राप्त करें और देश का नाम रोशन करें। यह बात अतिरिक्त महानिदेशक पुलिस चैन्नई सांगाराम जांगिड़ ने गुरूवार को राजकीय महिला महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव भोर 2013 के समापन समारोह में बतौर मुख्य अतिथि कही।

जांगिड़ ने कहा कि छात्राएं स्वयं को छात्रों से कमतर नहीं समझें और अपनी प्रतिभा का पूरा प्रदर्शन कर लक्ष्य अर्जित करें। कार्यक्रम के अध्यक्ष पुलिस अधीक्षक राहुल बारहट ने कहा कि लक्ष्य तय कर उसके अनुरूप तैयारी करें। विशिष्ट अतिथि मुख्य कार्यकारी अधिकारी जिला परिषद बाड़मेर एल आर गुगरवाल ने कहा कि अभावो का बहाना नहीं बनाएं और मेहनत करें। राजवेस्ट पावर लि. भादरेस के निदेशक कमलकांत ने कहा कि छात्रों की अपेक्षा छात्राओं में ई क्यू अधिक होती है।

उन्होंने छात्राओं को प्लाण्ट देखने के लिए भादरेस आने का न्यौता दिया। समाज सेवी तनसिंह चौहान ने छात्राओं को उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं दी। कॉलेज प्राचार्य प्रो बेंसिल फर्नांडिस ने प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए बताया कि महाविद्यालय का परिणाम 98 प्रतिशत रहा। छात्रसंघ अध्यक्ष सुश्री कीर्तिका चौहान ने कहा कि यह कॉलेज पीजी किया जाए ताकि छात्राओं को उच्च अध्ययन के समुचित अवसर मिल सके। एबीवीपी के जिला संयोजक नरपतराज मूंढ ने विवेकानंद के आदर्शाें पर चलने का आह्वान किया। इस अवसर पर हिमांशु ढोलिया, हेमलता सोनी, प्रमिला सोनी ने नृत्य की प्रस्तुति दी।

सरस्वती वंदना वर्षा, वैशाली, सरस्वती ने पेश की। एकल नृत्य प्रतियोगिता में वर्षा सोलंकी प्रथम, कविता छाजेड़ द्वितीय, प्रियंका राजपुरोहित तृतीय रही। कार्यक्रम में किसान छात्रावास की व्यवस्थापिका अमृतकौर, रेवंतसिंह चौहान, बालसिंह राठौड़, स्वरूपसिंह, शंभू मांकड़, हरीश जांगिड़, एम आर गढवीर, जांगिड़ समाज के अध्यक्ष बालाराम, डॉ. हरीश जांगिड़ सहित कई जने शरीक हुए। कार्यक्रम का संचालन छात्रसंघ परामर्शदाता डॉ. हुकमाराम सुथार व वैशाली शर्मा ने किया। डॉ. संजय माथुर ने धन्यवाद दिया।

आसाराम के आश्रम में शिष्‍य को जहर पिलाया गया !

नई दिल्‍ली। दिल्‍ली गैंगरेप की शिकार दामिनी को ही दोषी ठहराने और फिर आलोचकों की तुलना कुत्‍ते से करने वाले आसाराम बापू एक बार फिर विवादों में फंस गए हैं। जबलपुर स्थित उनके आश्रम में उनके एक शिष्‍य को जहर देकर मार डाला गया। परिजनों का आरोप है कि इसके लिए आसाराम ही जिम्‍मेदार हैं।
आसाराम के आश्रम में शिष्‍य को जहर पिलाया गया !
आसाराम का विवादों से पुराना नाता रहा है। खुद को संत कहने वाले आसाराम को बात बात में गुस्‍सा आ जाता है। वह कभी मीडिया पर भड़क जाते हैं तो कभी नरेंद्र मोदी पर। इतना ही नहीं, आसाराम के आश्रम में बच्‍चों की लाश भी मिल चुकी है। आरोप लगा कि आश्रम में काला जादू होता है। दवाइयों में भी मिलावट का आरोप लगा तो आश्रम में छापे पड़े।

लेकिन इस बार जबलपुर में संत आसाराम बापू के करीबी शिष्य 23 वर्षीय राहुल पचौरी की रहस्यमय मौत पर परिजनों ने गंभीर आरोप लगाए हैं। परिजनों का कहना है कि आसाराम के आश्रम में उसे जहर पिलाया गया है, जिससे उसकी मौत हुई। उधर पिछली रात्रि आश्रम से घर लौटते समय राहुल को उल्टी होने पर गंभीरावस्था में जबलपुर हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था, जहां उपचार के दौरान सुबह उसकी मौत हो गई। अस्पताल से सूचना मिलने पर ग्वारीघाट पुलिस चौकी में मर्ग कायम कर मामले को विवेचना में लिया है।

इस संबंध में पुलिस को दिए बयान में गौर एकता मार्केट निवासी मृतक राहुल के पिता डीके पचौरी ने बताया कि 27 जनवरी को संत आसाराम बापू जबलपुर आये थे, यहां पर दो दिनों तक प्रवचन देने के बाद वे 30 जनवरी को नरसिंहपुर रवाना हुए थे। नरसिंहपुर रवाना होने के पूर्व आसाराम ने राहुल से लंबी बातचीत की थी। उन्होंने आरोप लगाया है कि अकेले में हुई चर्चा के बाद राहुल को एक घोल पिलाया गया था। उसके बाद राहुल रामपुर स्थित कल्याणिका परिसर से घर के लिये रवाना हुआ और कुछ दूरी तय करने के बाद उसे उल्टी होने लगी थी। तबियत बिगडऩे पर राहुल सीधे जबलपुर हॉस्पिटल पहुंचा और वहां से उसने पड़ोस में रहने वाले शुक्ला परिवार को फोन पर सूचना देकर पिता को जबलपुर हॉस्पिटल भेजने को कहा था। सूचना पाकर हॉस्पिटल पहुंचे परिजनों को राहुल बेहोश मिला और सुबह 4 बजे के करीब उसकी मौत हो गई। युवक की मौत की सूचना पर पुलिस ने मर्ग कायम किया है।

जैसलमेर के शासक तथा इनका संक्षिप्त इतिहास

जैसलमेर के शासक तथा इनका संक्षिप्त इतिहास

जैसलमेर राज्य की स्थापना भारतीय इतिहास के मध्यकाल के आरंभ में ११७८ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज रावल-जैसल के द्वारा किया गया। भाटी मूलत: इस प्रदेश के निवासी नहीं थे। यह अपनी जाति की उत्पत्ति मथुरा व द्वारिका के यदुवंशी इतिहास पुरुष कृष्ण से मानती है। कृष्ण के उपरांत द्वारिका के जलमग्न होने के कारण कुछ बचे हुए यदु लोग जाबुलिस्तान, गजनी, काबुल व लाहौर के आस-पास के क्षेत्रों में फैल गए थे। कहाँ इन लोगों ने बाहुबल से अच्छी ख्याति अर्जित की थी, परंतु मद्य एशिया से आने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के सामने ये ज्यादा नहीं ठहर सके व लाहौर होते हुए पंजाब की ओर अग्रसर होते हुए भटनेर नामक स्थान पर अपना राज्य स्थापित किया। उस समय इस भू-भाग पर स्थानीय जातियों का प्रभाव था। अत: ये भटनेर से पुन: अग्रसर होकर सिंध मुल्तान की ओर बढ़े। अन्तोगत्वा मुमणवाह, मारोठ, तपोट, देरावर आदि स्थानों पर अपने मुकाम करते हुए थार के रेगिस्तान स्थित परमारों के क्षेत्र में लोद्रवा नामक शहर के शासक को पराजित यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की थी। इस भू-भाग में स्थित स्थानीय जातियों जिनमें परमार, बराह, लंगा, भूटा, तथा सोलंकी आदि प्रमुख थे। इनसे सतत संघर्ष के उपरांत भाटी लोग इस भू-भाग को अपने आधीन कर सके थे। वस्तुत: भाटियों के इतिहास का यह संपूर्ण काल सत्ता के लिए संघर्ष का काल नहीं था वरन अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष था, जिसमें ये लोग सफल हो गए।


सन ११७५ ई. के लगभग मोहम्मद गौरी के निचले सिंध व उससे लगे हुए लोद्रवा पर आक्रमण के कारण इसका पतन हो गया व राजसत्ता रावल जैसल के हाथ में आ गई जिसने शीघ्र उचित स्थान देकर सन् ११७८ ई. के लगभग त्रिकूट नाम के पहाड़ी पर अपनी नई राजधानी स्थापित की जो उसके नाम से जैसल-मेरु - जैसलमेर कहलाई।

जैसलमेर राज्य की स्थापना भारत में सल्तनत काल के प्रारंभिक वर्षों में हुई थी। मध्य एशिया के बर्बर लुटेरे इस्लाम का परचम लिए भारत के उत्तरी पश्चिम सीमाओं से लगातार प्रवेश कर भारत में छा जाने के लिए सदैव प्रयत्नशील थे। इस विषय परिस्थितियों में इस राज्य ने अपना शैशव देखा व अपने पूर्ण यौवन के प्राप्त करने के पूर्व ही दो बार प्रथम अलउद्दीन खिलजी व द्वितीय मुहम्मद बिन तुगलक की शाही सेना का
कोप भाजन बनना पड़ा। सन् १३०८ के लगभग दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की शाही सेना द्वारा यहाँ आक्रमण किया गया व राज्य की सीमाओं में प्रवेशकर दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया। यहाँ के राजपूतों ने पारंपरिक ढंग से युद्ध लड़ा। जिसके फलस्वरुप दुर्ग में एकत्र सामग्री के आधार पर यह घेरा लगभग ६ वर्षों तक रहा। इसी घेरे की अवधि में रावल जैतसिंह का देहांत हो गया तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र मूलराज जैसलमेर के सिंहासन पर बैठा। मूलराज के छोटे भाई रत्नसिंह ने युद्ध की बागडोर अपने हाथ में लेकर अन्तत: खाद्य सामग्री को समाप्त होते देख युद्ध करने का निर्णय लिया। दुर्ग में स्थित समस्त स्रियों द्वारा रात्रि को अग्नि प्रज्वलित कर अपने सतीत्व की रक्षा हेतु जौहर कर लिया। प्रात: काल में समस्त पुरुष दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर टूट पड़े। जैसा कि स्पष्ट था कि दीर्घ कालीन घेरे के कारण रसद न युद्ध सामग्री विहीन दुर्बल थोड़े से योद्धा, शाही फौज जिसकी संख्या काफी अधिक थी तथा खुले में दोनों ने कारण ताजा दम तथा हर प्रकार के रसद तथा सामग्री से युक्त थी, के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके शीघ्र ही सभी वीरगति को प्राप्त हो गए।



तत्कालीन योद्धाओं द्वारा न तो कोई युद्ध नीति बनाई जाती थी, न नवीनतम युद्ध तरीकों व हथियारों को अपनाया जाता था, सबसे बड़ी कमी यह थी कि राजा के पास कोई नियमित एवं प्रशिक्षित सेना भी नहीं होती थी। जब शत्रु बिल्कुल सिर पर आ जाता था तो ये राजपूत राजा अपनी प्रजा को युद्ध का आह्मवाहन कर युद्ध में झोंक देते थे व स्वयं वीरगति को प्राप्त कर आम लोगों को गाजर-मूली की तरह काटने के लिए बर्बर व युद्ध प्रिया तुर्कों के सामने जिन्हें अनगिनत युद्धों का अनुभव होता था, निरीह छोड़े देते थे। इस तरह के युद्धों का परिणाम तो युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व ही घोषित होता था।

सल्तनत काल में द्वितीय आक्रमण मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५-१३५१ ई.) के शासन काल में हुआ था, इस समय यहाँ का शासक रावल दूदा (१३१९-१३३१ ई.) था, जो स्वयं विकट योद्धा था तथा जिसके मन में पूर्व युद्ध में जैसलमेर से दूर होने के कारण वीरगति न पाने का दु:ख था, वह भी मूलराज तथा रत्नसिंह की तरह अपनी कीर्ति को अमर बनाना चाहता था। फलस्वरुप उसकी सैनिक टुकड़ियों ने शाही सैनिक ठिकानों पर छुटपुट लूट मार करना प्रारंभ कर दिया। इन सभी कारणों से दण्ड देने के लिए एक बार पुन: शाही सेना जैसलमेर की ओर अग्रसर हुई। भाटियों द्वारा पुन: उसी युद्ध नीति का पालन करते हुए अपनी प्रजा को शत्रुओं के सामने निरीह छोड़कर, रसद सामग्री एकत्र करके दुर्ग के द्वार बंद करके अंदर बैठ गए। शाही सैनिक टुकड़ी द्वारा राज्य की सीमा में प्रवेशकर समस्त गाँवों में लूटपाट करते हुए पुन: दुर्ग के चारों ओर डेरा डाल दिया। यह घेरा भी एक लंबी अवधि तक चला। अंतत: स्रियों ने एक बार पुन: जौहर किया एवं रावल दूदा अपने साथियों सहित युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। जैसलमेर दुर्ग और उसकी प्रजा सहित संपूर्ण-क्षेत्र वीरान हो गया।

परंतु भाटियों की जीवनता एवं अपनी भूमि से अगाध स्नेह ने जैसलमेर को वीरान तथा पराधीन नहीं रहने दिया। मात्र १२ वर्ष की अवधि के उपरांत रावल घड़सी ने पुन: अपनी राजधानी बनाकर नए सिरे से दुर्ग, तड़ाग आदि निर्माण कर श्रीसंपन्न किया। जो सल्तनत काल के अंत तक निर्बाध रुपेण वंश दर वंश उन्नति करता रहा। जैसलमेर राज्य ने दो बार सल्तनत के निरंतर हमलों से ध्वस्त अपने वर्च को बनाए रखा।

मुगल काल के आरंभ में जैसलमेर एक स्वतंत्र राज्य था। जैसलमेर मुगलकालीन प्रारंभिक शासकों बाबर तथा हुँमायू के शासन तक एक स्वतंत्र राज्य के रुप में रहा। जब हुँमायू शेरशाह सूरी से हारकर निर्वासित अवस्था में जैसलमेर के मार्ग से रावमाल देव से सहायता की याचना हेतु जोधपुर गया तो जैसलमेर
के भट्टी शासकों ने उसे शरणागत समझकर अपने राज्य से शांति पूर्ण गु जाने दिया। अकबर के बादशाह बनने के उपरांत उसकी राजपूत नीति में व्यापक परिवर्तन आया जिसकी परणिति मुगल-राजपूत विवाह में हुई। सन् १५७० ई. में जब अकबर ने नागौर में मुकाम किया तो वहाँ पर जयपुर के राजा भगवानदास के माध्यम से बीकानेर और जैसलमेर दोनों को संधि के प्रस्ताव भेजे गए। जैसलमेर शासक रावल हरिराज ने संधि प्रस्ताव स्वीकार कर अपनी पुत्री नाथीबाई के साथ अकबर के विवाह की स्वीकृति प्रदान कर राजनैतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। रावल हरिराज का छोटा पुत्र बादशाह दिल्ली दरबार में राज्य के प्रतिनिधि के रुप में रहने लगा। अकबर द्वारा उस फैलादी का परगना जागीर के रुप में प्रदान की गई। भाटी-मुगल संबंध समय के साथ-साथ और मजबूत होते चले गए। शहजादा सलीम को हरिराज के पुत्र भीम की पुत्री ब्याही गई जिसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया गया था। स्वयं जहाँगीर ने अपनी जीवनी में लिखा है - 'रावल भीम एक पद और प्रभावी व्यक्ति था, जब उसकी मृत्यु हुई थी तो उसका दो माह का पुत्र था, जो अधिक जीवित नहीं रहा। जब मैं राजकुमार था तब भीम की कन्या का विवाह मेरे साथ हुआ और मैने उसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया था। यह घराना सदैव से हमारा वफादार रहा है इसलिए उनसे संधि की गई।'

मुगलों से संधि एवं दरबार में अपने प्रभाव का पूरा-पूरा लाभ यहाँ के शासकों ने अपने राज्य की भलाई के लिए उठाया तथा अपनी राज्य की सीमाओं को विस्तृत एवं सुदृढ़ किया। राज्य की सीमाएँ पश्चिम में सिंध नदी व उत्तर-पश्चिम में मुल्तान की सीमाओं तक विस्तृत हो गई। मुल्तान इस भाग के उपजाऊ क्षेत्र होने के कारण राज्य की समृद्धि में शनै:शनै: वृद्धि होने लगी। शासकों की व्यक्तिगत रुची एवं राज्य में शांति स्थापित होने के कारण तथा जैन आचार्यों के प्रति भाटी शासकों का सदैव आदर भाव के फलस्वरुप यहाँ कई बार जैन संघ का आर्याजन हुआ। राज्य की स्थिति ने कई जातियों को यहाँ आकर बसने को प्रोत्साहित किया फलस्वरुप ओसवाल, पालीवाल तथा महेश्वरी लोग राज्य में आकर बसे व राज्य की वाणिज्यिक समृद्धि में अपना योगदान दिया।

भाटी मुगल मैत्री संबंध मुगल बादशाह अकबर द्वितीय तक यथावत बने रहे व भाटी इस क्षेत्र में एक स्वतंत्र शासक के रुप में सत्ता का भोग करते रहे। मुगलों से मैत्री संबंध स्थापित कर राज्य ने प्रथम बार बाहर की दुनिया में कदम रखा। राज्य के शासक, राजकुमार अन्य सामन्तगण, साहित्यकार, कवि आदि समय-समय पर दिल्ली दरबार में आते-जाते रहते थे। मुगल दरबार इस समय संस्कृति, सभ्यता तथा अपने वैभव के लिए संपूर्ण विश्व में विख्यात हो चुका था। इस दरबार में पूरे भारत के गुणीजन एकत्र होकर बादशाह के समक्ष अपनी-अपनी योग्यता का प्रदर्शन किया करते थे। इन समस्त क्रियाकलापों का जैसलमेर की सभ्यता, संस्कृति, प्राशासनिक सुधार, सामाजिक व्यवस्था, निर्माणकला, चित्रकला एवं सैन्य संगठन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।

मुगल सत्ता के क्षीण होते-होते कई स्थानीय शासक शक्तिशाली होते चले गए। जिनमें कई मुगलों के गवर्नर थे, जिन्होंने केन्द्र के कमजोर होने के स्थिति में स्वतंत्र शासक के रुप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। जैसलमेर से लगे हुए सिंध व मुल्तान प्रांत में मुगल सत्ता के कमजोर हो जाने से कई राज्यों का जन्म हुआ, सिंध में मीरपुर तथा बहावलपुर प्रमुख थे। इन राज्यों ने जैसलमेर राज्य के सिंध से लगे हुए विशाल भू-भाग को अपने राज्य में शामिल कर लिया था।
अन्य पड़ोसी राज्य जोधपुर, बीकानेर ने भी जैसलमेर राज्य के कमजोर शासकों के काल में समीपवर्ती प्रदेशों में हमला संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार जैसलमेर राज्य की सीमाएँ निरंतर कम होती चली गई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन के समय जैसलमेर का क्षेत्रफल मात्र १६ हजार वर्गमील भर रह
गया था। यहाँ यह भी वर्णन योग्य है कि मुगलों के लगभग ३०० वर्षों के लंबे शासन में जैसलमेर पर एक ही राजवंश के शासकों ने शासन किया तथा एक ही वंश के दीवानों ने प्रशासन भार संभालते हुए उस संझावत के काल में राज्य को सुरक्षित बनाए रखा।

जैसलमेर राज्य में दो पदों का उल्लेख प्रारंभ से प्राप्त होता है, जिसमें प्रथम पद दीवान तथा द्वितीय पद प्रधान का था। जैसलमेर के दीवान पद पर पिछले लगभग एक हजार वर्षों से एक ही वंश मेहता (महेश्वरी) के व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता रहा है। प्रधान के पद पर प्रभावशाली गुट के नेता को राजा के द्वारा नियुक्त किया जाता था। प्रधान का पद राजा के राजनैतिक वा सामरिक सलाहकार के रुप में होता था, युद्ध स्थिति होने पर प्रधान, सेनापति का कार्य संचालन भी करते थे। प्रधान के पदों पर पाहू और सोढ़ा वंश के लोगों का वर्च सदैव बना रहा था।

मुगल काल में जैसलमेर के शासकों का संबंध मुगल बादशाहों से काफी अच्छा रहा तथा यहाँ के शासकों द्वारा भी मनसबदारी प्रथा का अनुसरण कर यहाँ के सामंतों का वर्गीकरण करना प्रारंभ किया। प्रथा वर्ग में 'जीवणी' व 'डावी' मिसल की स्थापना की गई व दूसरे वर्ग में 'चार सिरै उमराव' अथवा 'जैसाणे रा थंब' नामक पदवी से शोभित सामंत रखे गए। मुगल दरबार की भांति यहाँ के दरबार में सामन्तों के पद एवं महत्व के अनुसार बैठने व खड़े रहने की परंपरा का प्रारंभ किया। राज्य की भूमि वर्गीकरण भी जागीर, माफी तथा खालसा आदि में किया गया। माफी की भूमि को छोड़कर अन्य श्रेणियां राजा की इच्छानुसार नर्धारित की जाती थी। सामंतों को निर्धारित सैनिक रखने की अनुमति प्रदान की गई। संकट के समय में ये सामन्त अपने सैन्य बल सहित राजा की सहायता करते थे। ये सामंत अपने-अपने क्षेत्र की सुरक्षा करने तथा निर्धारित राज राज्य को देने हेतु वचनबद्ध भी होते थे।

ब्रिटिश शासन से पूर्व तक शासक ही राज्य का सर्वोच्च न्यायाधिस होता था। अधिकांश विवादों का जाति समूहों की पंचायते ही निबटा देती थी। बहुत कम विवाद पंचायतों के ऊपर राजकीय अधिकारी, हाकिम, किलेदार या दीवान तक पहुँचते थे। मृत्युदंड देने का अधिकार मात्र राजा को ही था। राज्य में कोई लिखित कानून का उल्लेख नही है। परंपराएँ एवं स्वविवेक ही कानून एवं निर्णयों का प्रमुख आधार होती थी।

भू-राज के रुप में किसान की अपनी उपज का पाँचवाँ भाग से लेकर सातवें भाग तक लिए जाने की प्रथा राज्य में थी। लगान के रुप में जो अनाज प्राप्त होता था उसे उसी समय वणिकों को बेचकर नकद प्राप्त धनराशि राजकोष में जमा होती थी। राज्य का लगभग पूरा भू-भाग रेतीला या पथरीला है एवं यहाँ वर्षा भी बहुत कम होती है। अत: राज्य को भू-राज से बहुत कम आय होती थी तथा यहाँ के शासकों तथा जनसाधारण का जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण था।

संत जाम्भोजी चिन्तनशील एवं मननशील



मध्यकाल में राजस्थानमें अनेक संत हुए, जिन्होंने यहाँ के धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन को नवीन गति प्रदान की। डॉ पेमाराम के अनुसार, "उन्होंने हिन्दू तथा इस्लाम में प्रचलित आडम्बरों तथा रुढियों का खण्डण किया और समाज के वास्तविक रुप को समझने का निर्देश दिया।"

जाम्भोजी :

जाम्भोजी का जन्म, १४५१ ई० में नागौर जिले के पीपासर नामक गाँव में हुआ था। ये जाति से पंवार राजपूत थे। इनके पिता का नाम लोहाट और माता का नाम हंसा देवी थी। ये अपने माता - पिता की इकलौती संतान थे। अत: माता - पिता उन्हें बहुत प्यार करते थे। डॉ० जी० एन० शर्मा के अनुसार,"जाम्भोजी बाल्यावस्था से ही मननशील थे तथा वे कम बोलते थे, इसलिए लोग उन्हें गूँगा कहते थे। उन्होंने सात वर्ष की आयु से लेकर १६ वर्ष कीआयु तक गाय चराने का काम किया। तत्पश्चात् उनका साक्षात्कार गुरु से हुआ। माता - पिता की मृत्यु के बाद जाम्भोजी ने अपना घर छोड़ दिया और सभा स्थल (बीकानेर) चले गये तथा वहीं पर सत्संग एवं हरि चर्चा में अपना समय गुजारते रहे। १४८२ ई० में उन्होंने कार्तिक अष्टमी को विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की।

जाम्भोजी चिन्तनशील एवं मननशील थे। उन्होंने उस युग की साम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं एवं अंधविश्वासों का विरोध करते हुए कहा था कि -


"सुण रे काजी, सुण रे मुल्लां, सुण रे बकर कसाई।
किणरी थरणी छाली रोसी, किणरी गाडर गाई।।
धवणा धूजै पहाड़ पूजै, वे फरमान खुदाई।
गुरु चेले के पाए लागे, देखोलो अन्याई।।"

वे सामाजिक दशा को सुधारना चाहते थे, ताकि अन्धविश्वास एवं नैतिक पतन के वातावरण को रोका जा सके और आत्मबोध द्वारा कल्याण का मार्ग अपनाया जा सके। संसार के मि होने पर भी उन्होंने समन्वय की प्रवृत्ति पर बल दिया। दान की अपेक्षा उन्होंने ' शील स्नान ' को उत्तम बताया। उन्होंने पाखण्ड को अधर्म बताया और विधवा विवाह पर बल दिया। उन्होंने पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। ईश्वर के बारे में उन्होंने कहा -


"तिल मां तेल पोहप मां वास,
पांच पंत मां लियो परगास।"

जाम्भोजी ने गुरु के बारे में कहा था -


"पाहण प्रीती फिटा करि प्राणी,
गुरु विणि मुकति न आई।"

भक्ति पर बल देते हुए उन्होंने कहा था -


"भुला प्राणी विसन जपो रे,
मरण विसारों के हूं।"

जाम्भोजी ने जाति भेद का विरोध करते हुए कहा था कि उत्तम कुल में जन्म लेने मात्र से व्यक्ति उत्तम नहीं बन सकता, इसके लिए तो उत्तम करनी होनी चाहिए। उन्होंने कहा -


"तांहके मूले छोति न होई।
दिल-दिल आप खुदायबंद जागै,
सब दिल जाग्यो लोई।"

तीर्थ यात्रा के बारे में विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था :


"अड़सठि तीरथ हिरदै भीतर, बाहरी लोकाचारु।"

सास की शह पर युवती से दुष्कर्म


सास की शह पर युवती से दुष्कर्म 
गिरादड़ा गांव की आरोपी महिला व पाली का आरोपी रिमांड पर, कोर्ट में पीडि़ता के बयान दिए
पाली सदर थाना अंतर्गत गिरादड़ा गांव निवासी एक महिला की शह पर उसकी पुत्रवधू के अपहरण व दुष्कर्म का मामला सामने आया है। पीडि़ता का आरोप है कि उसकी सास उससे अश्लील हरकत कर मारपीट भी करती थीं, उसकी मदद से ही पाली का युवक जीप में डाल कर उसे जंगल में ले गया और उससे दुष्कर्म किया। पीडि़ता का कहना है कि सास की शह पर आरोपी ने ससुराल में भी उससे दुष्कर्म किया। 

यह घटना तो गिरादड़ा गांव में गत 14 से 18 जनवरी के बीच की बताई जाती है, लेकिन पीडि़ता ने अहमदबाद के अस्पताल में उपचार कराने के बाद 23 जनवरी को वहां वटवा थाने में अपने साथ हुए अत्याचार को लेकर रिपोर्ट दर्ज कराई। चंूकि घटनास्थल स्थल पाली जिले का था। ऐसे में अहमदाबाद के वटवा थाना पुलिस ने जीरो नंबरी एफआईआर दर्ज कर मूल पत्रावली पाली पुलिस को भेजी है। एसपी के निर्देश पर गत 25 जनवरी को सदर थाने में दर्ज इस प्रकरण की जांच औद्योगिक थाना प्रभारी पारस चौधरी को सौंपी गई। मामले की जांच के बाद आरोपी कानाराम गुर्जर पुत्र मोडाराम निवासी निंबली-मांडा हाल मंडिया रोड तथा गिरादड़ा गांव से पीडि़ता की सास को गिरफ्तार किया, जिन्हें कोर्ट के आदेश पर रिमांड पर लिया गया है। मामले में पीडि़ता के ससुर की भूमिका का भी पता लगाया जा रहा हैं। गुरुवार को पुलिस ने पीडि़ता को ले जाकर कोर्ट में बयान कराए तथा बयान की कॉपी मिलने के बाद पुलिस मामले में आगे की कार्रवाई करेगी।

ये लगाए आरोप

अहमदाबाद के वटवा इलाके में रहने वाली युवती की ओर से दर्ज कराई रिपोर्ट में बताया गया है कि पाली के गिरादड़ा गांव के युवक से उसकी शादी हुई है। उसका पति मजदूरी के सिलसिले में मुंबई में रहता है। 14 जनवरी को माता-पिता उसे गिरादड़ा गांव में सास-ससुर के पास छोड़कर चले गए। आरोप है कि घर पर अकेला देख उसकी सास उससे अश्लील हरकत कर मारपीट करती थीं। पाली के मंडिया रोड निवासी कानाराम गुर्जर का अक्सर उसकी सास के घर आना-जाना था। आरोपी का बजरी परिवहन का काम है, जिसने गत 14 जनवरी को उसकी सास की मदद से बोलेरो जीप में उसका अपहरण किया। आरोप है कि सास की शह पर आरोपी ने पहले उससे जीप में दुष्कर्म किया और बाद में घर आकर भी मारपीट कर उससे ज्यादती की। आरोप है कि तबीयत बिगडऩे पर आरोपियों ने उसे जीप से मारवाड़ जंक्शन छोड़कर डरा धमकाकर ट्रेन में बिठा दिया। अहमदाबाद पहुंचने पर परिजनों ने उसका उपचार कराया और वटवा थाने में इस आशय की रिपोर्ट दर्ज कराई।