सोमवार, 7 जनवरी 2013

बेटी, यह धर्म है पाप नहीं, कुंवारी कन्या बाप का मुंह देखती रह गई!



राजस्थानी धोरों के आगोश में हजारों प्रेम कहानियां खामोश छिटकीं पड़ी हैं। हवा के सर्द झोंके जब धोरों में सिहरन पैदा करते हैं तो फिजां में प्रेम आख्यान गूंजने लगते हैं। ऐसे ही प्रेम आख्यानों में से एक है जेठवा उजली की प्रेम कहानी, जब प्रेम में समर्पण की बात आती है लोगों की जुबां पर उजली का नाम होता हैं। राजस्थान के प्रसिद्ध साहित्यिक हस्तियों में से एक लक्ष्मीकुमारी चूड़ावत ने जेठवा उजली के प्रेम पर आधारित कहानी भी रची हैं। .जेठवा-उजली के उस अमर प्रेम की दास्तान..जहां समर्पण ही सबकुछ है...
बेटी, यह धर्म है पाप नहीं, कुंवारी कन्या बाप का मुंह देखती रह गई!
एक दिन बरड़े की पहाडिय़ों में जबर्दस्त आंधी, तूफान के साथ मूसलाधार बारिश हुई। बरसात ऐसी कि इस तलहटी में अपने पशु चराने आए चारणों के परिवारों के बच्चे सहम गये और अपनी मांओं की छातियों से चिपक गए। बूढ़ों को लगा जैसे आज ही काल आ गया। क्या औरत, क्या आदमी और क्या बच्चे सब ईश्‍वर से प्रार्थना करने लगे कि प्रभु अपनी इस प्रकोपी बरसात को वापस ले लो। एक कामचलाउ झोंपड़ी में अस्सी बरस का बूढ़ा अमरा चारण अपनी गुदड़ी में दुबका, ठिठुरता हुआ माला के मनके फर रहा था।
बेटी, यह धर्म है पाप नहीं, कुंवारी कन्या बाप का मुंह देखती रह गई!
आधी रात का वक्त इस भयानक बारिश में कब आ गया पता ही न चला। ऐसे ही वक्त अमरा को झोंपड़ी के बाहर घोड़े की टापों की आवाज सुनाई दी। थोड़ी देर में आवाज झोंपड़ी के बाहर आकर रूक गई। घोड़े की हिनहिनाहट सुनाई दी। बूढ़े अमरा ने अपनी जवान बेटी को आवाज दी, बेटी उजली! उठकर जरा बाहर तो देख, इस तूफानी रात में कौन आया है।ठण्ड में कांपती उजली ने गुदड़ी फेंकी और बाहर देखा तो एक घोड़ा खड़ा था। घुड़सवार घोड़े के पांवों के पास गठरी हुआ पड़ा था, बिल्कुल अचेत, पानी में तर बदन और आंखें बंद। उजली ने बापू को सारा दृश्‍य बताया तो बूढ़ा बाप बाहर आया और देखा कि नौजवान घुड़सवार की नाड़ी चल रही है। दोनों बाप-बेटी जैसे-तैसे नौजवान को झोंपड़ी के भीतर लाए।

बाप ने बेटी से कहा कि इस नौजवान को बचाना है तो इसका शरीर गर्म करना पड़ेगा, नहीं तो ठण्ड के मारे बदन अकड़ जाएगा। उजली ने बापू से कहा कि गुदडी़ तो एक ही है, बाकी सब बरसात में गीली हो गई हैं। पिता ने कहा कि चूल्हे में आग जला कर भी गर्मी पैदा की जा सकती है। उजली ने बताया कि थोड़ी-सी लकडिय़ां हैं।लेकिन वो भी गीली हैं। भयानक बारिश के बीच यह एक और भयानक संकट। 

घर आया अतिथि मर जाए तो भयानक पाप के भागी होंगे बाप-बेटी।पिता ने आखिरी उपाय सोचकर कहा, बेटी अगर यह मर गया तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। घर आए मेहमान की जान बचाना हमारी जिम्मेदारी है। अब तो एक ही उपाय है कि अपने बदन की गर्मी से इसकी जान बचाई जाए। मेरे बूढ़े शरीर में तो गर्मी है नहीं, तू अपने बदन की गर्मी इसे देकर बचा सकती है। बेटी बाप का मुंह देखती रह गई। बाप ने कहा, इस बेहोश नौजवान के साथ भांवरें ले और ईश्‍वर को साक्षी मान कर कह कि आज से यही मेरा पति है। उजली ने पिता की बात मानी और परदेसी के साथ भांवर ले भगवान को प्रणाम कर अनजान परदेसी को पति स्वीकार किया और गुदड़ी में उसे लेकर सो गई।

उजली के बदन की गर्मी से नौजवान परदेसी की बेहोशी टूटी और फिर टूट गये सब बंधन। दो अनजान बदन एक ही रात में एक दूजे के हो गए। पोरबंदर का राजकुमार जेठवा गरीब अमरा चारण की उजली का संसार हो गया। सुबह बारिश थमने के बाद दोनों के बीच मिलन और धूमधाम से शादी के वायदे हुए। कुछ दिन उजली के साथ बिताकर जेठवा वापस चला गया।
उधर, उजली जेठवा की राह तकती रही। वह सुबह से लेकर शाम तक पोरबंदर की तरफ जाने वाली राह पर जेठवा के घोड़े की टापों की आवाज सुनने और जेठवा को देखने के लिए बैठी रहती। कभी उस राह कोई घुड़सवार आता तो उसकी आंखों में चमक आ जाती लेकिन जब वो पास आता तो जेठवा को ना पाकर फिर निराश हो जाती। रातों में वो चांद सितारों से जेठवा को लेकर बातें करतीं। लेकिन अब ना तो जेठवा को आना था और न ही वो आया।

उजली के दिल का दर्द काव्य की लड़ी में गुंथता जाता, उसकी जबान से दोहों और सोरठों की झड़ी लगने लगती। उसे सारा संसार ही जेठवामय दिखाई देता। पशु, पक्षी, ताल, तलैया, सारी प्रकृति में उसे जेठवा घुलामिला लगता। खेत में सारस का एक जोड़ा चुग रहा था। उजली रो पड़ी, संसार में प्रेम को निभाने वाला सारस का जोड़ा या फिर चकोर पक्षी। जेठवा, मुझे तो तीसरा कोई प्रेम निभाने वाला दिखाई नहीं देता।


आषाढ़ के बादल फिर आए और बरसने लगे। उजली के मन पर बरसात की बूंदें अंगारों की तरह पड़ने लगीं। विरही उजली के दिल में विरह के गीत गूंजने लगे। उजली ने अपने रचे सोरठे जेठवा के पास भेजे, जवाब में जेठवा ने कहला भेजा, ‘तू चारण की बेटी, मैं राजपूत, मेरे लिए तू बहन समान, भूल जा मुझे और कर ले किसी चारण से ब्याह।’ उजली ने जवाब में कहलवाया, ‘जिससे मन लग जाए वही प्रेम और पति होता है, जात-पांत का कोई भेद नहीं होता प्रेम में।’ लेकिन जेठवा का पत्थर दिल जरा भी नहीं पिघला। उसने उजली को कहला भेजा कि अगर तुझे जात-पांत की परवाह नहीं तो मुझसे भी बड़े राजा हैं, कर ले उनसे ब्याह।‘
उजली के तन-मन में आग लग गई। गुस्से से भरी उजली एक दिन निकल पड़ी पैदल ही पोरबंदर की राह। महल के बाहर भूखी-प्यासी पड़ी रही तीन दिन तक। तीसरे दिन जेठवा ने झरोखे से झांकते हुए कहा, ‘उजली तू किसी चारण के बेटे से शादी कर ले और मुझसे आधा राज ले ले।’ सुनकर उजली उठी, पास ही रत्नाकर सागर लहरा रहा था, उजली गई और सीधे सागर में कूद गई।

3 टिप्‍पणियां:

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