बाड़मेर क्षेत्र में मारवाड़ी ऊन पर अब विलायती ऊन भारी पड़ने लगी है। सस्ती बिकती विलायती ऊन के चलते देशी ऊन के अच्छे नहीं मिलते भाव के कारण भेड़पालक अब इससे मुंह मोड़ने लगे हैं। इसके अलावा संभाग स्तर पर देशी ऊन खरीद की कोई सरकारी मण्डी नहीं होना भी दम तोड़ते इस व्यवसाय का एक प्रमुख कारण है।
सिवाना व मोकलसर क्षेत्र में बड़ी संख्या में निवास करने वाले रेबारी समाज के लोग प्रमुख रूप से पशुपालन व्यवसाय पर निर्भर है। इसके चलते पूर्व के वर्षो में प्रतिवर्ष क्षेत्र भर से दस लाख किलोग्राम देशी ऊन का उत्पादन होता था। गत पांच वर्ष पहले क्षेत्र में बड़ी मात्रा में देशी ऊन तैयार होती थी, लेकिन सरकार व प्रशासन की बेरूखी के चलते इस पारम्परिक ऊन के व्यवसाय पर ध्यान नहीं देने से अब यह दम तोड़ने लगा है।
ऊन बेचना बना टेढ़ी खीर
तहसील स्तर के अलावा संभाग स्तर पर ऊन खरीद की कोई मण्डी नहीं होने पर देशी ऊन को बेचना भेड़पालकों के लिए टेढ़ी खीर बन गया है। ब्यावर के अलावा नजदीक में ऊन खरीद की कोई सरकारी मण्डी नहीं होने पर इतनी दूर ऊन ले जाकर बेचने के काम में भेड़ पालकों परेशानियां उठानी पड़ती है। भेड़पालकों की मजबूरी को समझते हुए स्थानीय व्यापारी इनको प्रति किलो 10 से 12 रूपए से अधिक भाव नहीं देते। जबकि यही ऊन ब्यावर की मण्डी में 25 से 40 रूपए प्रति किलो के भाव से बिकती है। ऎसे में कम भाव में ऊन बेचकर स्थानीय भेड़पालकों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।
परेशानी बढ़ी
अतिक्रमणों के चलते दिनों दिन कम होती ओरण गोचर भूमि पर पशुओं की चराई को लेकर भेड़ पालको को परेशानी का सामना करना पड़ता है। वर्ष भर चारा व पानी की तंगी को लेकर इन्हें पशुओं को लेकर हरे भरे इलाकों में पलायन करना पड़ता है। इस पर ये न तो दूध बेच पाते है ओर न ही खाद ही। वहीं इन्हें हरदम जान माल का खतरा भी रहता है।
दाम सही नहीं मिलते
विलायती ऊन के सस्ती बिकने पर देशी ऊन के सही दाम नहीं मिलते हैं।
पुखराज देवासी अध्यक्ष, भेड़ पशुपालक संघ सिवाना
मंडी में ऊन बेचें
ऊन विक्रय केन्द्र खोलना सरकार पर निर्भर है। अच्छे दाम पाने के लिए पशुपालकों को सरकारी मण्डी में सीधी ऊन बेचनी चाहिए। डॉ. बीआर जेदिया सहायक निदेशक, पशुपालन विभाग
सिवाना व मोकलसर क्षेत्र में बड़ी संख्या में निवास करने वाले रेबारी समाज के लोग प्रमुख रूप से पशुपालन व्यवसाय पर निर्भर है। इसके चलते पूर्व के वर्षो में प्रतिवर्ष क्षेत्र भर से दस लाख किलोग्राम देशी ऊन का उत्पादन होता था। गत पांच वर्ष पहले क्षेत्र में बड़ी मात्रा में देशी ऊन तैयार होती थी, लेकिन सरकार व प्रशासन की बेरूखी के चलते इस पारम्परिक ऊन के व्यवसाय पर ध्यान नहीं देने से अब यह दम तोड़ने लगा है।
ऊन बेचना बना टेढ़ी खीर
तहसील स्तर के अलावा संभाग स्तर पर ऊन खरीद की कोई मण्डी नहीं होने पर देशी ऊन को बेचना भेड़पालकों के लिए टेढ़ी खीर बन गया है। ब्यावर के अलावा नजदीक में ऊन खरीद की कोई सरकारी मण्डी नहीं होने पर इतनी दूर ऊन ले जाकर बेचने के काम में भेड़ पालकों परेशानियां उठानी पड़ती है। भेड़पालकों की मजबूरी को समझते हुए स्थानीय व्यापारी इनको प्रति किलो 10 से 12 रूपए से अधिक भाव नहीं देते। जबकि यही ऊन ब्यावर की मण्डी में 25 से 40 रूपए प्रति किलो के भाव से बिकती है। ऎसे में कम भाव में ऊन बेचकर स्थानीय भेड़पालकों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।
परेशानी बढ़ी
अतिक्रमणों के चलते दिनों दिन कम होती ओरण गोचर भूमि पर पशुओं की चराई को लेकर भेड़ पालको को परेशानी का सामना करना पड़ता है। वर्ष भर चारा व पानी की तंगी को लेकर इन्हें पशुओं को लेकर हरे भरे इलाकों में पलायन करना पड़ता है। इस पर ये न तो दूध बेच पाते है ओर न ही खाद ही। वहीं इन्हें हरदम जान माल का खतरा भी रहता है।
दाम सही नहीं मिलते
विलायती ऊन के सस्ती बिकने पर देशी ऊन के सही दाम नहीं मिलते हैं।
पुखराज देवासी अध्यक्ष, भेड़ पशुपालक संघ सिवाना
मंडी में ऊन बेचें
ऊन विक्रय केन्द्र खोलना सरकार पर निर्भर है। अच्छे दाम पाने के लिए पशुपालकों को सरकारी मण्डी में सीधी ऊन बेचनी चाहिए। डॉ. बीआर जेदिया सहायक निदेशक, पशुपालन विभाग
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