शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

ख्यात्कार मुन्ह्नोत नैनसी की ४०० वीं जयंती पर स्वर्ण नगरी जैसलमेर मैं दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार जैसलमेर न्यूज़- जैसलमेर न्यूज़- राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर तथा साहित्य अकादमी दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान मैं ख्यात्कार मुन्ह्नोत नैनसी की ४०० वीं जयंती पर स्वर्ण नगरी जैसलमेर मैं दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का उदघाटन सत्र जिला कलेक्टर गिरिराज सिंह कुशवाहा के मुख्या आतिथ्य, साहित्य कार घनश्याम देवड़ा, प्रोफ़ेसर दिलबाग सिंह के विशिष्ठ आतिथ्य तथा पदमश्री चन्द्र प्रकाश देवल की अध्यक्षता मैं आरम्भ हुआ. इस अवसर पर साहित्य अकादमी बीकानेर के अध्यक्ष डा. महेंद्र खडगावत, नन्द भारद्वाज, नगर पालिका के चेयर मैन अशोक तंवर , श्याम सिंह राजपुरोहित के साथ साथ पूरे राजस्थान और भारत के इतिहासकार और साहित्यकार उपस्थित रहे. उदघाटन समारोह को संबोधित करते हुए पदम् श्री चन्द्र प्रकाश देवल ने कहा की मुन्ह्नौत नेनसी की ख्यातें अमर इतिहास है. जिस पर विभिन्न आयामों पर शोध की आवश्यकता है. राजस्थानी भाषा के विकास मैं नेनसी की महती भूमिका थी. सेमीनार के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए इतिहासकार घश्यम देवड़ा ने कहा की मुन्ह्नोत नेनसी की ख्यातों मैं राजस्थानी शब्दों की महानतम व्याख्या की गयी है. उनकी ख्यातों मैं सरल भाषा, शब्दों का नापा तुला चयन राजस्थानी भाषा को नया आयाम प्रदान करता है. उन्होंने कहा की नेनसी की ख्यातें मारवाड़ परगने की संस्कृति को उल्लेखित करती है. १८ वीं शताब्दी मैं राजस्थानी भाषा के विकास की शुरुआत कर नेनसी ने राजस्थानी भाषा के विकास के बीज बोये. सत्र को संबोधित करते हुए मुख्य अतिथी जिला कलेक्टर गिरिराज सिंह कुशवाहा ने कहा की मुन्ह्नोत नेनसी की ४०० वीं जयन्ती पर उनके सम्मान मैं डाक टिकट जारी कराने के संयुक्त प्रयास किये जाने चाहिए तथा जोधपुर मैं उनको समर्पित शोध संसथान का गठन कर राजस्थानी भाषा के शोधार्थीयों को छात्रवृति देने के प्रयास किये जाने चाहिए. उन्होंने आगे कहा की जैसलमेर मैं लिट्रे चर फेस्टिवल के आयोजन की पहल की जायेगी. सत्र को वरिष्ठ इतिहासकार पोफ्फेसर डा. दिलबाग सिंह तथा शिव प्रकाश भनोत ने भी संबोधित किया. ध्यान रहे की ये सेमीनार जैसलमेर मैं २ दिन के लिए हो रहा है और दोनों ही दिन राजस्थानी साहित्य और इतिहास पर चर्चा के अलावा राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए भी किये जा रहे प्रयासों पर विचार कर उसे पुख्ता किया जाएगा ताकि जल्द से जल्द राजस्थानी भाषा को मान्यता मिल सके.

ख्यात्कार मुन्ह्नोत नैनसी की ४०० वीं जयंती पर स्वर्ण नगरी जैसलमेर मैं दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार
जैसलमेर न्यूज़-
जैसलमेर न्यूज़- राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर तथा साहित्य अकादमी दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान मैं ख्यात्कार मुन्ह्नोत नैनसी की ४०० वीं जयंती पर स्वर्ण नगरी जैसलमेर मैं दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का उदघाटन सत्र जिला कलेक्टर गिरिराज सिंह कुशवाहा के मुख्या आतिथ्य, साहित्य कार घनश्याम देवड़ा, प्रोफ़ेसर दिलबाग सिंह के विशिष्ठ आतिथ्य तथा पदमश्री चन्द्र प्रकाश देवल की अध्यक्षता मैं आरम्भ हुआ. इस अवसर पर साहित्य अकादमी बीकानेर के अध्यक्ष डा. महेंद्र खडगावत, नन्द भारद्वाज, नगर पालिका के चेयर मैन अशोक तंवर , श्याम सिंह राजपुरोहित के साथ साथ पूरे राजस्थान और भारत के इतिहासकार और साहित्यकार  उपस्थित रहे.
उदघाटन समारोह को संबोधित करते हुए पदम् श्री चन्द्र प्रकाश देवल ने कहा की मुन्ह्नौत नेनसी की ख्यातें अमर इतिहास है. जिस पर विभिन्न आयामों पर शोध की आवश्यकता है. राजस्थानी भाषा के विकास मैं नेनसी की महती भूमिका थी. सेमीनार के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए इतिहासकार घश्यम देवड़ा ने कहा की मुन्ह्नोत नेनसी की ख्यातों मैं राजस्थानी शब्दों की महानतम व्याख्या की गयी है. उनकी ख्यातों मैं सरल भाषा, शब्दों का नापा तुला चयन राजस्थानी भाषा को नया आयाम प्रदान करता है. उन्होंने कहा की नेनसी की ख्यातें मारवाड़ परगने की संस्कृति को उल्लेखित करती है. १८ वीं शताब्दी मैं राजस्थानी भाषा के विकास की शुरुआत कर नेनसी ने राजस्थानी भाषा के विकास के बीज बोये.
सत्र को संबोधित करते हुए मुख्य अतिथी जिला कलेक्टर गिरिराज सिंह कुशवाहा ने कहा की मुन्ह्नोत नेनसी की ४०० वीं जयन्ती पर उनके सम्मान मैं डाक टिकट जारी कराने के संयुक्त प्रयास किये जाने चाहिए तथा जोधपुर मैं उनको समर्पित शोध संसथान का गठन कर राजस्थानी भाषा के शोधार्थीयों को छात्रवृति देने के प्रयास किये जाने चाहिए. उन्होंने आगे कहा की जैसलमेर मैं लिट्रे चर फेस्टिवल के आयोजन की पहल की जायेगी.
सत्र को वरिष्ठ इतिहासकार पोफ्फेसर डा. दिलबाग सिंह तथा शिव प्रकाश भनोत ने भी संबोधित किया.
ध्यान  रहे की ये सेमीनार जैसलमेर मैं २ दिन के लिए हो रहा है  और दोनों ही दिन राजस्थानी साहित्य और इतिहास पर चर्चा के अलावा राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए भी किये जा रहे प्रयासों  पर विचार कर उसे पुख्ता किया जाएगा ताकि जल्द से जल्द राजस्थानी भाषा को मान्यता मिल सके.

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

Nindiya se jagi bahar (Hero)

श्री भादरिया राय मन्दिर स्थान जैसलमेर


श्री भादरिया राय मन्दिर,जैसलमेर 


श्री भादरिया राय मन्दिर स्थान जैसलमेर से करीब ८० की. मी. जोधपुर रोड धोलिया ग्राम से १० की. मी. उतर की तरफ़ हें ! उक्त स्थान के पास एक भादरिया नमक राजपूत रहता था उसका पुरा परिवार आवड़ा माता का भक्त था ! जिसमे उक्त महाशय की पुत्री जिसका नाम बुली बाई था वह मैया की अनन्य भक्त थी ! उसकी भक्ति की चर्चाए सुनकर माड़ प्रदेश के महाराजा साहब पुरे रनिवास सहित उक्त जगह पधारे , बुली बाई से महारानी जी ने साक्षात रूप मे मैया के दर्शन कराने का निवेदन किया ! उक्त तपस्वनी ने मैया का ध्यान लगाया , भक्तो के वस भगवान होते हें ! मैया उसी समय सातो बहने व भाई के साथ सहित पधार गई ! सभी मे गद गद स्वर मे मैया का अभिवादन किया तब रजा ने मैया से निवेदन किया मैया आप सभी परिवार सहित किस जगह विराजमान हें तब मैया ने फ़रमाया मे काले उचे पर्वत पर रहती हू ! इस प्रकार मैया वहा से रावण हो गई , मैया के दर्शन पाने से सभी का जीवन धन्य हुवा ! उसी स्थान पर भक्त भादरिये के नाम से भादरिया राय मन्दिर स्थान महाराजा की प्रेणना से बनाया गया !

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

भारतीयों के नववर्ष के प्रारंभ होने की और नवरात्री के आरम्भ होने की सभी मित्रो को हार्दिक शुभकामनाये.....माता रानी की कृपा से हम सभी का मंगल हो, यही कामना है...देवी मैया की कृपा हम सभी पर बनी रहे.......जय माता दीश्री तणोट राय मंदिर जैसलमेर


श्री तणोट राय मंदिर
श्री तणोट राय मंदिर स्थान भाटी राजा की राजधानी थी वह मातेश्वरी के भक्त थे ! उनके आमंत्रण देने पर महामाया सातों बहने तणोट पधारी थी , इसी कारण भक्ति भाव से प्रेरित होकर राजा ने एक मन्दिर की स्थापना की थी , वर्तमान मे यह स्थान जैसलमेर नगर से १२० की.मी पशिचम सीमा किशनगढ़ रोड पर बना हुवा हें ! जो भारतीय सेना बी. एस. ऍफ़. जैसलमेर राज घराना व खाडाल के ग्रामो का मुख्य आस्था केन्द्र हें बड़ा ही भव्य रमणीक मन्दिर हें !
कहते हें सन १९६५ मे पाक सेना का पड़ाव था लेकिन मातेश्वरी की कृपा से किसी भी सैनिक के कोई खरोच भी नही आयी ! उल्टे पाक सेना की पुरी ब्रिगेड आपस मे लड मरी , उस सेना का ब्रिगेडियर यह माजरा देखकर विसमित हो गया वह मन ही मन इस देविक चमत्कार से मुसलमान होते हुवे भी भी श्रद्धा से मनोती मानने लगा व माता की शरण ग्रहण करने पर उसके प्राण बच गये पुरी ब्रिगेड ख़त्म हो गई उकत अधिकारी मैया का भक्त बन गया ! कुछ समय बाद मे पासपोर्ट से भारत आया तणोट राय की पूजा अर्चना कर पश्चिम सीमा पर दोनों मुल्क मे शान्ति बनी रहे , ऐसी कामना करके अपने वतन को लौट गया !
माताजी कितनी दयालु हें जो उसे पुकारता उसे शरण व अभय कर देती हें ऐसे चमत्कारों से वसीभूत होकर बी. एस. ऍफ़. के कर्मचारी व अधिकारी तो मैया की अनन्य भगत बन गये प्रत्येक कंपनी जहा भी रहती हें सर्वप्रथम मैया का छोटा मोटा स्थान बना कर नियमित पूजा होती हें नवरात्री के दिनों मे बड़ा भव्य मेले का आयोजन होता हें ! अनेको यात्री आते हें इस प्रकार मुख्यालय से तणोट राय आवागमन के साधन नव दीन तक निशुल्क बसे चलती हें ! बी. एस. ऍफ़. के फोजी भाई तो धन्य हें जो सीमा की निगरानी करते हुवे मैया के प्रति अटूट श्रदा से सेवा पूजन करते हें , कोई मन्दिर मे सफाई का कार्य करते हें , कोई लंगर सँभालते हें और कई गाना बजाना करते हें ! कितने यात्रियों की सेवा मे जुट जाते हें , हमेशा लंगर भोजन का आयोजन होता हें ! मैया के भजन कीर्तन चलते रहते हें , धन्य हें मैया व भक्त फोजी भाई !!!!
यह युद्ध १६ नवम्बर , १९६५ को हुवा था, तनोट चारो और से घिर चुका था ! कर्नल जय सिंह राठोड़ (थैलासर)बीकानेर के नेतृतव मे केवलतीन सो सैनिक थे ! शत्रु ने तीन तरफ़ से धुहादार हमला कर दिया था ! हमारेजवान निरंतर लड़ते रहे ! दुसरे दीन एक जवान मे भगवती काभाव आया कि घभरावो मत तुम्हारा बाल भीबाका नहीं होगा ! हुवा यही तनोट राय कि कृपा से भारतीय सेना के किसी भी जवान को कोईचोट नहीं आयी,और शत्रु फौज हतास होकर पॉँच सो शव छोड़कर भाग खड़ी हुयी ! आश्चर्य इस बात का हे कि मंदीर कीआसपास ३००० बमबरसाए गए , मंदीर मे एक भी खरोच नहीं आयी , उनमे से कुछ बम आज भी मंदीर मे पड़ेहे !
तणू भूप तेडाविया, आवड़ निज एवास ! पूजा ग्रही परमेश्वरी , नामे थप्यो निवास !!

रविवार, 3 अप्रैल 2011

आओ मिलकर नव वर्ष मनाएँ नव ऊर्जा की जोत लगाएँ - भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’


आओ मिलकर नव वर्ष मनाएँ
नव ऊर्जा की जोत लगाएँ
- भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’
अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्ददायी पीयूष वर्षिणी भारतीय संस्कृति का यह पावन पर्व, पंचांग पूजन का पुनीत पर्व है जिसमें निहित तिथि, वार, योग-करण एवं नक्षत्रा के आधार पर भारतीय समाज अपने मंागलिक अनुष्ठानों के लिए मुहूर्त देखता है। बालक के नामकरण संस्कार के निमित राशि खोजता है। यह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता एवं गरिमा का प्रथम दिवस है। नव संवत्सर चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा, जिसे विक्रम संवत् का नवीन दिवस भी कहा जाता है।
            राष्ट्रीय चेतना के ऋषि स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ‘‘यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकीयों की दिनांकों पर आश्रित रहनेवाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है।‘‘
            यह दिन हमारे मन में यह उद्बोध जगाता है कि हम पृथ्वी माता के पुत्रा हैं, सूर्य, चन्द्र व नवग्रह हमारे आधार हैं ‘प्राणी मात्रा हमारे पारिवारिक सदस्य हैं। तभी हमारी संस्कृति का बोध वाक्य ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का सार्थक्य सिद्ध होता है।
            सामाजिक विश्रृंखलता की विकृतियों ने भारतीय जीवन में दोष एवं रोग भर दिया, फलतः कमजोर राष्ट्र के भू भाग पर परकीय, परधर्मियों ने आक्रमण कर हमें गुलाम बना दिया। सदियों पराधीनता की पीड़ाएं झेलनी पड़ी। पराधीनता के कारण जिस मानसिकता का विकास हुआ, इससे हमारे राष्ट्रीय भाव का क्षय हो गया और समाज में व्यक्तिवाद, भय एवं निराशा का संचार होने लगा।
जिस समाज में भगवान श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध महावीर, नानक व अनेक ऋषि-मुनियों का आविर्भाव हुआ। जिस धराधाम पर परशुराम, विश्वामित्रा, वाल्मिकी, वशिष्ठ, भीष्म एवं चाणक्य जैसे दिव्य पुरुषों का जन्म हुआ। जहां परम प्रतापी राजा-महाराजा व सम्राटों की श्रृंखला का गौरवशाली इतिहास निर्मित हुआ उसी समाज पर शक, हुण, डच, तुर्क, मुगल, फ्रांसीसी व अंग्रेजांे जैसी आक्रान्ता जातियों का आक्रमण हो गया। यह पुण्यभूमि भारत इन परकीय लुटेरांे की शक्ति परीक्षण का समरांगण बन गया और भारतीय समाज के तेजस्वी, ओजस्वी और पराक्रमी कहे जाने वाले शासक आपसी फूट एवं निज स्वार्थवश पराधीन सेना के सेनापति की भांति सब कुछ सहते तथा देखते रहे।
जो जीत गये उन्होनें हम पर शासन किया और अपनी संस्कृति अपना धर्म एवं अपनी परम्परा का विष पिलाकर हमें कमजोर एवं रुग्ण किया।
किन्तु इस राष्ट्र की जिजीविषा ने, शास्त्रों में निहित अमृतरस ने इस राष्ट्र को मरने नहीं दिया। तभी भारत में जन्में प्रख्यात शायर इकबाल ने कहा था:           ‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहंी हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा।।
            आशा और विश्वास की प्रखर लौ जलाता गीता का यह बोधवाक्य ‘‘यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे’’ ने भारतीय समाज को धर्म की धुरी से जोड़े रखा और इस धर्म ने इस राष्ट्र को अमरत्व प्रदान किया।
            इस अमरत्व को अक्षुण्ण बनाने के निमित्त आवश्यक है, हम अपने पर थोपी परम्परा संस्कृति और सभ्यता की केंचुली उतार फेंक,े तथा राष्ट्र गौरव की पुरातन परम्परा का पुनः आश्रय धारण कर पूरी निष्ठा से इसका निर्वाह करें, तभी हम सम्प्रभुता सम्पन्न स्वाधीन भारत के नागरिक कहलाने का गौरव पा सकेंगे।
            हमें अपने ऋषि मुनियांे, दिव्य पुरुषों एवं इतिहास पुरुषों द्वारा स्थापित त्योहारों, पर्वों एवं परम्पराओं को उत्साहपूर्वक मनाने की ओर अग्रसर होना होगा।
भारतीय त्योहारों एवं पर्वों का श्रीगणेश दिवस चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा, महान प्रतापी, लोक हितकारी गौ ब्राह्मण रक्षक, समाज चेतना के दैदीप्यमान नक्षत्रा सम्राट विक्रमादित्य के राज्याभिषेक का दिन माना गया है।
            जिसका साम्राज्य पूरव में श्याम, बर्मा, तिब्बत, नेपाल, वियतनाम व जापान की सीमाओं तक निहित था। पश्चिम में गन्धार, अफगनिस्तान, काबूल व अरब के भू भाग को समेटे था। उत्तर में हिमालय पार रूस तथा दक्षिण में महासागर की उत्तंग तरंगांे तक व्याप्त था। जहां दूध-दहीं की नदियां बहती थीं तथा सोना-चांदी के भण्डार भरे रहते  थे, अर्थात्  अतुलित समृद्धि थी।
            जहां द्वारांे पर ताले नहीं, धर्म के ध्वज लहराते थे। कहीं कोई रोगी अथवा दोषी नागरिक ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलता था। अपनी  आस्था, विश्वास एवं परम्पराओं पर जीवन निर्वाह करने वाला समाज सुखी, समृद्ध तथा समत्व भाव से जीता था। जिसके दरबार में मानवीय नवरत्नों का मान सम्मान होता था। गुरु आज्ञा से शासक दास भाव से शासन करता था। भेदभाव रहित न्याय एवं योग्यतानुरुप प्रबन्ध तथा आत्म अनुशासन युक्त प्रजा विक्रमादित्य के शासन का आधार था। जहां ऋषियों का वह वरद वाक्य - ‘‘सर्वेभवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणी पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग भवेत।।’’ सार्थक होता था। जहाँ व्यक्ति गौरव से जीता था और गरिमा से मरता था। इन श्रेष्ठताओं को राष्ट्र की ऋचाओं में समेटने के लिए एवं जीवन में उत्साह व आनन्द भरने के लिये यह नव संवत्सर वर्ष प्रतिपदा प्रति वर्ष समाज जीवन में आत्म गौरव भरने के लिए आता है। आवश्यकता है, हम इसे पूरी निष्ठा के साथ आत्मसात करें।
            इस पर्व के साथ कुछ प्रागैतिहासिक तथा ऐतिहासिक स्मृतियों के ¬प्रेरणा तत्व जुडे़ हैं। पृथ्वी सूक्त व वाराह पुराण के अनुसार चैत्रा मास में जीव तत्व चेता। अतः यह चैत्रा मास कहा गया। पृथ्वी का प्राकट्य दिवस, ब्रह्मा के संकल्पसृष्टि के सृजन का प्रथम दिवस, त्रोता में भारतीय जीवन के आधार भगवान श्री राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त दिवस, जिस दिन राम राज्य की स्थापना हुई। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक एवं कलयुग के प्रथम सम्राट परीक्षित के सिंहासनारूढ़ होने का यही दिन रहा है। जिसे युगाब्द कहा जाता है। सम्प्रति पांच हजार एक सौ ग्यारहवां युगाब्द है।
            ऐतिहासिक घटनाओं में देव पुरुष भगवान झूलेलाल का जन्म दिवस, चेटीचन्द तथा गुड़ी पडवा भी आज के दिन है। समाज सुधार के युग प्रणेता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना भी आज के दिन की थी। श्क्ति पूजा का चैत्रा नवरात्रि का प्रथम दिवस तथा समाज संगठन के सूत्रा पुरुष व सामाजिक चेतना के प्रेरक डॉ. केशव बलिराम हेड़गेवार का जन्म दिवस भी आज ही के दिन है।
            ऐसे अनेक प्रेरणादायी ऊर्जा प्रदत्त प्रसंग इसके साथ जुडे़ हैं। इस महापर्व को हमें उत्साह, आनन्द एवं आस्था के साथ मनाते हुए, उत्सवित-उल्लसित तो होना ही है, भावी पीढ़ी को इस पारम्परिक सम्पदा का हस्तान्तरण करने का भाव जागृत करना है।
तभी हम स्वाधीन भारत के नागरिक होने का गौरव धारण कर सकेंगे। महात्मा गांधी ने 1944 की हरिजन पत्रिका में लिखा था ‘‘ स्वराज्य का अर्थ है - स्वसंस्कृति, स्वधर्म एवं स्वपरम्पराओं का हृदय से निर्वाह करना। पराया धन और परायी परम्परा को अपनाने वाला व्यक्ति न ईमानदार होता है न आस्थावान।
इस पर्व की महिमा में वागड़ के प्रख्यात उर्दू साहित्यकार स्व. मुज़तर सिद्दीकी ने लिखा है-
इसके दिनमान में सर्वदा सूर्य है,                   
इसके परिवार का देवता सूर्य है। इसके अस्तित्व में आत्मा सूर्य की,     
इसके आधार में व्याप्त सूर्य है।। चन्द्रमा की कलाओं की सूचक है,                    
यह वास्तव में बहुत ज्ञानवर्धक है। इसको अपनाए भारत का हर आदमी,
विश्वव्यापी हो संवत् सर विक्रमी।। हम मनाएँ संवत् सर विक्रमी।
भारतीय समाज में व्याप्त पराधीनता के कीटाणुआंे से मुक्त होने के लिये आवश्यक है- कि हम अपने पारंपरिक प्रेरणादायी पाथेय सम्पदा का आश्रय लेकर, नये राष्ट्रवादी समाज की पुनर्रचना करें, और इसका श्री गणेश ज्योतिषीय महापर्व नव संवत्सर को श्रद्धा भाव से मनाकर करेें। अतः बार-बार यही आग्रह है-
               ‘‘ सन् को छोड़ संवत अपनाओ, निज गौरव का मान जगाओ’’।।
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(भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’)

अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर






अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर

होलिका दहन के दूसरे दिन से शुरू हुए गणगौर त्योहार में कुंवारी कन्याएं और विवाहिताएं पूजन इत्यादि में जुट गई है। गणगौर का पर्व शुरू होने के साथ ही कुंवारी कन्याएं और महिलाएं सुबह-सुबह फूल चुनने के बाद गड़सीसर तालाब का पवित्र जल कलश में भर कर ला रही है। प्रति दिन ईसर और गणगौर की पूजा हो रही है। सुबह-सुबह महिलाएं बगीचे में जाती है और दूब एकत्रित करती है। इस दौरान वे गीत गाती है-बाड़ी वाला बाड़ी खोल, म्हैं आया थारी दोब ने...। बाद में महिलाएं निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर दो-दो का जोड़ा बनाकर गणगौर की पूजा करती है।

अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर

कुंवारी कन्याएं अच्छे घर और वर की चाह में गणगौर का त्योहार मनाती है। गणगौर का त्योहार पूरी तरह से कुंवारी कन्याओं और महिलाओं का होता है। गणगौर मनाने के प्रति कुंवारी कन्याओं की यह धारणा है कि उसे अच्छा पति मिले और अच्छा घराना मिले।

महिलाओं का उत्साह उमड़ा

गणगौर के त्योहार में महिलाएं जुट गई है। सुबह-शाम महिलाओं की सार्वजनिक स्थानों, मंदिरों, छायादार व पुराने पेड़ों के नीचे भीड़ लगी रहती है। सजी-धजी महिलाएं गणगौर की आरती और पूजा में संलग्न देखी जा रही है।

गली-मोहल्ले में गणगौर की धूम

होलिका दहन के दूसरे दिन से शुरू होने वाली गणगौर पूजा 15 दिन तक चलती है। इसमें कुंवारियां व नवविवाहिताएं बढ़-चढ़कर भाग ले रही है। इन दिनों चल रही गणगौर पूजा की धूम स्वर्णनगरी के प्रत्येक मोहल्ले में देखने को मिल रही है। सुबह-सुबह हाथ में कलश लिए कन्याएं गणगौर पूजन स्थल पर पहुंचती है और विधिवत ईसर-गणगौर की पूजा करती दिखाई दे रही है।

शाम के समय सुनाई पड़ते हैं पारंपरिक गीत

गणगौर उत्सव शुरू होते हैं शहर में पारंपरिक गीतों की गूंज सुनाई देने लगी है। शाम के समय किसी भी गली-मोहल्ले से निकलने पर गणगौर के गीत ही सुनाई पड़ते हैं। सुबह की पूजा के बाद कन्याएं एवं महिलाएं शाम को एक बार एकत्र होकर पूजा-अर्चना करती है और गणगौर के पारंपरिक गीत गाती है।ड्ड

शीतला माता को ठंडे का भोग चढ़ाया

शीतला सप्तमी का त्योहार हर्षोल्लास से मनाया गया। मान्यताओं के अनुसार संक्रामक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली और चेचक रोग से बचाने वाली शीतला माता को ठंडे का भोजन और पकवानों का भोग लगाया गया। घरों में ठंडे की तैयारियां शनिवार से ही होनी शुरू हो गई थी। रविवार को जल्दी उठकर घर केे सदस्यों ने सज-धजकर शहर में स्थित शीतला माता मंदिरों में पूजा-अर्चना की और शीतला माता को ठंडे पकवानों का भोग लगाया।

परींडा पूजा हुई

जो श्रद्धालु मंदिर नहीं जा सके उन्होंने अपने-अपने घरों में पेयजल स्थल 'परींडेÓ पर मटकी की पूजा-अर्चना की। मटकी पर स्वास्तिक बनाया गया और ठंडे भोजन और भांति-भांति के पकवान माता को प्रसन्न करने के लिए चढ़ाए गए।

शीतला सप्तमी पर बासी भोजन का भोग लगाया

शीतला सप्तमी पर बासी भोजन का महत्त्व है। शीतला सप्तमी के दिन अधिकांश घरों में चूल्हे नहीं जले । भगवती को बासी भोजन का ही भोग लगाया जाता है। एक दिन पूर्व गृहिणियों ने खाना बनाकर रख दिया था। भोजन में दही, छाछ और घी के भांति-भांति के पकवान बनाए गए। शीतला सप्तमी के दिन माता को भोग चढ़ाकर प्रसाद स्वरूप भोजन ग्रहण किया गया।

राजपरिवार भी शामिल होता था शीतला सप्तमी पूजन में

रोगनाशिनी देवी शीतला की आराधना आम आदमी ही नहीं, राजपरिवार भी करता आया है। राज परिवार की परंपरा के अनुसार शीतला सप्तमी के दिन गाजे-बाजे के साथ देदानसर जाकर पूजा-अर्चना की जाती थी। इसके पीछे यह धारणा होती थी कि राज परिवार ही नहीं जनता भी स्वस्थ एवं सानंद रहे।

कहीं सप्तमी, कहीं अष्टïमी

रोग विनाशिनी शीतला की पूजा का लोक पर्व पारंपरिक रूप से कहीं सप्तमी तो कहीं अष्टïमी को मनाया जाता है। जैसलमेर के मूल निवासी शीतला सप्तमी को ही शीतला की पूजा करते हैं। जबकि जैसलमेर को छोड़ कर मारवाड़ और देश भर के अन्य भागों से आए गृहस्थ अष्टïमी को भी इस पर्व को पारंपरिक रूप से मनाते हैं।ड्ड

सूर्यदेव को रोटे का भोग लगाया

होली के बाद आने वाले पहले रविवार को अदीत रोटे का व्रत हर्षोल्लास से मनाया गया। यह त्योहार सूरज भगवान को समर्पित होता है। रविवार (आदित्यवार) को महिलाओं ने सूरज भगवान को भोग चढ़ाने के लिए रोटा बनाया और पूजा-अर्चना व कथा वाचन के साथ भगवान को भोग लगाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया। जैसलमेर में यह पर्व परंपरागत रूप से मनाया जाता रहा है। इस त्योहार पर भाई अपनी बहिनों को मिठाई या मिठाई के लिए पैसे देते हैं। यह त्योहार मां और बेटी साथ मिलकर मनाते हैं। इस त्योहार को मनाने के पीछे सुख-समृद्धि की कामना छिपी है। इस दिन महिलाएं गेहूं के आटे का बड़ा-सा रोटा बनाती है। इस रोटे पर भारी मात्रा में घी और शक्कर चुपड़कर सबसे पहला कौर सूरज भगवान को चढ़ाया जाता है।

अदीत रोटे की कहानी

मां-बेटी सामूहिक रूप से अदीत रोटा मना रही थी। मां का रोटा बन चुका था और बेटी का बना नहीं था। तभी साधू आता है। बेटी मां के रोटे से कुछ हिस्सा साधू को दे देती है। मां गुस्सा होती है। बेटी अपने रोटे का कुछ भाग देना चाहती है, मगर मां कहती है ला मेरे सागी रोटे का कोर..बेटी दु:खी होकर घर से निकल जाती है। जंगल में उसे राजकुमार मिलता है और उससे ब्याह रचा लेता है। अगले साल फिर अदीत रोटा का त्योहार आता है। रानी बनी बेटी रोटा बनाती है। रोटा सोने का बन जाता है। राजकुमार इसका कारण पूछता है। बेटी कहती है, मेरे पीहर से आया है। राजकुमार कहता है मैंने तो तुझे जंगल से उठाया था, चल मुझे पीहर दिखा। रानी भगवान सूरज से प्रार्थना करती है। जंगल में बस्ती बस जाती है। राजा वहां पहुंचता है तो उसका खूब आदर सत्कार होता है। बाद में राजा लौट आता है तो बस्ती भी उठ जाती है। राजा के सैनिक शिकायत करते हैं कि वहां तो कुछ भी नहीं है। राजा सारी बात रानी से पूछता है। रानी पूरी कहानी सच-सच बता देती है। तब से अदीत रोटे से सभी लड़कियां राजकुमार जैसे वर और राजघराने जैसे घर की कामना में यह व्रत करती आ रही है।

घोड़ों ने दिखाए करतब कलाकारों ने जमाया रंग




घोड़ों ने दिखाए करतब कलाकारों ने जमाया रंग
बाड़मेर
तिलवाड़ा मल्लीनाथ पशु मेले में शनिवार को अश्व प्रतियोगिताओं का आयोजन हुआ।कार्यक्रम में पूर्वगृह राज्यमंत्री अमराराम चौधरी, पूर्व जोधपुर नरेश गजेसिंह, संयुक्त निदेशक पशुपालन विभाग एसके श्रीवास्तव, उपखंड अधिकारी ओमप्रकाश विश्नोईव सिवाना तहसीलदार धन्नाराम भादू बतौर अतिथि मौजूद थे।

मेला अधिकारी बीआर जेदिया ने बताया कि पशु प्रतियोगिताओं के तहत आयोजित अश्व वंश प्रतियोगिता में प्रजनन योग्य मादा घोड़ी में मोहनसिंह पुत्र वागसिंह प्रथम व गिरवरसिंह पुत्र शंभूसिंह द्वितीय स्थान पर रहे।बछेरा-बछेरी प्रतियोगिता में जितेंद्रसिंह पुत्र अमरसिंह प्रथम, मोहनसिंह पुत्र बागसिंह द्वितीय, नरघोड़ा प्रतियोगिता में गणपतसिंह पुत्रमूलसिंह प्रथम व नारायण सिंह पुत्र प्रतापसिंह द्वितीय स्थान पर रहे। इसी प्रकार अखिल भारतीय मारवाड़ी अश्व संस्थान की ओर से भी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया।

इसके तहत अदंत बछेरी प्रतियोगिता में मोहम्मद रफीक प्रथम व किशनसिंह द्वितीय, अदंत बछेरा प्रतियोगिता में रघुनाथ पुत्र भंवरसिंह प्रथम व निखिल माथुर द्वितीय, दो दंत बछेरी प्रतियोगिता में मोहनसिंह पुत्रबाघसिंह प्रथम व गौरव पुत्र ज्योतिसिंह द्वितीय स्थान पर रहे।बछेरा दो दंत प्रतियोगिता में जितेंद्र पुत्र अमरसिंह प्रथम, बल्लू पुत्र सदीक खां द्वितीय स्थान पर रहे।प्रतियोगिताओं के दौरान आयोजित सर्वश्रेष्ठ अश्व का पुरस्कार शौर्य घोड़े ने जीता।घोड़े के मालिक जितेंद्र पुत्र अमरसिंह सतलाना हाउस जोधपुर का अतिथियों ने स्वागत किया।