शनिवार, 16 मई 2015

चमत्कारी है गायत्री मंत्र, परमात्मा से जोड़ता है हमारी आत्मा



तत्सवितुर्वरेण्यं के युगल तत्व को कभी हटाया नहीं जा सकता। यही अद्वैत है, एक प्रकाश रूप है, एक अन्धकार (काला) रूप है लेकिन स्मरण यह रहना चाहिए कि ये अन्धकार, ये कृष्णवर्ण ज्योतिर्मय तत्त्व है, इसमें ज्योति फूटती है।
यह कृष्णतत्व और सत्यलोक से आती हुई ज्ञानमयी धारा है जिसेे उलट कर राधा कहा जाता है, प्रत्येक कार्य की पूर्णता राधा तत्व से होती है। चक्षु में बाहरी सफेदी के रूप में राधा ने ही काले तारे को अपने अंचल में ले रखा है। यही युगल भाव है। यहां दोनों शक्तियां जुड़ती हैं वो प्रकाशमयी है।
प्रकाश का स्रोत
यहां अंधकार (काला) भी है। प्रकाश और अन्धकार को कोई अलग नहीं कर सकता, इसी का नाम अद्वैत है। सबूत यह है कि लाइट जल रही है जितनी पावर की लाइट है इससे चतुर्गुण पावर और बढ़ाकर लाइट जलाई जाएगी तो यह प्रकाश चतुर्गुण होकर दिन की तरह उजाला हो जाएगा।
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पावर और भी बढ़ाएंगे तो और उजाला होगा। तब प्रश्र यह होता है कि अगर अभी सारा अन्धकार इस लाइट ने खत्म कर दिया है तो और उजाला काहे का हुआ? उजाला तो अन्धेरे के हटाने को कहते हैं। उजाला और बढ़ता चला जाता है, इसके मायने अन्धेरा हटा ही नहीं है।
अन्धेरा मौजूद है, उस पर उजाला बढ़ता चला जाता है। वास्तव में यही स्वरूप होता है। अन्धेरा उजाला कोई बिल्कुल अलग-अलग कर दे यह सम्भव नहीं है। अर्थात चाहे इसे राधा-कृष्ण युगल कहें, चाहे शंकर-पार्वती कहें, चाहे राम-सीता कहें, इनमें से एक शक्ति सोममयी है एक अग्निमयी।
परमात्मा की शक्ति
इस अग्नि-सोम के जुड़ाव को-ज्योतिर्मय तत्व को अलग नहीं कर सकते, इसी का नाम अद्वैत है। इस अद्वैत से ज्योति फूटती रहती है। ज्योति से आगे क्रिया भाव चलते हैं, यह स्वयं कुछ नहीं करती है। जैसे आकाश फैला हुआ है उसी तरह ज्योति का समुद्र फैला हुआ है।
ज्योति समुद्र को माया, महामाया, प्रकृति, योगमाया इन शक्तियों द्वारा एक-एक घेरे में लेते जाना, सृष्टि का विकास करना, यह क्रम आगे चलता है।
वहां लिखा है सवितुर्वरेण्यं जिस सविता का भी कोई वरेण्यभाव बताया जा रहा है वह सविता कहां है। तो वही बताया-प्रधान-प्रधान ग्रह हुए राधा-कृष्ण युगल। उनके पांच उपग्रह-धरुण (वरुण) सविता, ब्रह्मणस्पति, ब्रहस्पति और शनि के बाद ही सूर्य का निर्माण होगा।
ये शनि सूर्य से बहुत ऊपर है। धरुण को हम वरुण कहते हैं। यह परोक्षभाषा का शब्द है। धरुण क्यों कहते हैं- सारे संसार का धारण उससे होता है। इसी को पुराणों में क्षीर सागर कहा गया है और वहां वह क्षीर सागर भी उपलक्षण रूप में कहा गया है। वेद मन्त्रों में उसकी लम्बी व्याख्या हुई है- तएते पयः समुद्राः। तएते दधि समुद्राः। तएते मधु समुद्राः। तएते घृत समुद्राः। तएते इक्षु समुद्राः।

यही कहते हुए सब चीजों का पृथक वर्णन किया गया है। वहां पर एक क्षीर सागर शब्द से सबका संकेत कर दिया गया है। हमारे पास भी सागर है-वह क्षार सागर है। सूर्य से ऊपर का सागर क्षीर सागर है।
क्षार का क्षीर कैसे बना?
हमारा समुद्र का जल क्षार यानी नमकीन है। बादल यह जल लेकर ऊपर-आकाश में जाते हैं। अन्तरिक्ष में वायु उस क्षार का शोधन करता है और वह क्षीर होकर वर्षा के माध्यम से जब पृथ्वी पर फिर आता है तो हमारे समुद्र का नमकीन जल मधुर हो जाता है।
इस धरुण यानी क्षीर सागर के पहले उपग्रह के बाद दूसरा नम्बर आता है सविता का। सविता के लिए लिखा गया है, श्सविता वै अस्माकं प्रसविता। सविता ही सारी सृष्टि का मूलाधार है सारी सृष्टि का प्रसव सविता से ही हुआ करता है, जिसे हम आधुनिक भाषा में विद्युत् शक्ति कहते हैं वही सविता है।
कौन है गायत्री
विद्युत् में निगेटिव्य तथा पॉजिटिव्य दो तत्व होते हैं। ये ही सविता के युगल तत्व हैं। सविता तत्व के लिए ही गायत्री संकेत कर रही है- तत्सवितुर्वरेण्यं यहां सविता ही महत्वपूर्ण है। अतः पांचों तत्वों का विवेचन न करके केवल सविता का विवेचन कर रहे हैं।
गायत्री के जरिए जिस तत्व को पकड़ते की कोशिश की जा रही है वह कौन है? वह सविता का भी वरेण्य है या पूजनीय है। उपग्रह रूप से सविता तत्व है जो सारे संसार का प्रसव करने वाला महाशक्तिमान तत्व बताया गया है।
दिव्य तेज
उस सविता को जो पूज्यनीय या वरेण्य है वह लक्षभूत तत्त्व है। क्या है वह वरेण्य? कहते हैं भर्गोदेवस्य धीमहि-अपने सूर्य की ओर दृष्टिकर के हम सूर्य को नहीं देख पाते। ऐसे हजारों सूर्य एकत्र हो जाएं, इतना तेज है वहां पर, इसलिए उसे भर्ग कहा जा रहा है।
उसे चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। वही भर्गदेव है युगल तत्व, गायत्री का मूल स्रोत, अग्नि सोममय युगल तत्व। इसके एक-एक कण में से निकलकर सैकड़ों ब्रह्माण्ड बनते जा रहे हैं-वेद मन्त्र के अनुसार जहां विशाल अग्नि जल रहा है जिसमें से अग्नि के कण निकल निकल कर उचटते जा रहे हैं, एक-एक कण रूप में।
उसमें से अनन्त ब्रह्माण्ड निकलते जा रहे हैं-उसका ध्यान किया जा रहा है। भर्गोदेवस्य धीमहि-ध्यान करते हैं। प्रत्यक्ष तो उसको देख नहीं सकते। जब सूर्य को नहीं देख सकते तो उसको कहां से देख सकेंगे? इसलिए उसका ध्यान मात्र किया जा सकता है। यह कहकर क्या चाहते हैं?
बुद्धि को प्रेरणा
धियो योनः प्रचोदयात् वह हमारी बुद्धि को प्रेरणा करे। संसार में बिना बुद्धि के भी क्या कोई कार्य होता है? सारा संसार बुद्धि के जरिए ही तो चल रहा है। फिर धियो योनः प्रचोदयात् का क्या अर्थ है? यह कि जिस बुद्धि के द्वारा सारा संसार चल रहा है वह बुद्धि त्रिगुण में फंसी हुई हैं-कभी सतोगुणी होती है, कभी रजोगुणी बनती है अहंकार जाग्रत हो जाता है, कभी तमोगुणी बनती है।
इस त्रिगुण में फंसी हुई जो बुद्धि है उससे संसार चक्र तो चलता रहेगा। लेकिन जो युगल तत्त्व-अद्वैत बताया है जिसमें सारी शक्तियों का भण्डार भरा हुआ है, जहां अमृतमयी शक्ति की वर्षा के लिए इस त्रिगुण से बाहर निकलना होगा। त्रैगुण्यमयी बुद्धि के द्वारा हम चाहें कि भर्गोदेव की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
इसलिए गीता के उपदेश के पहले अर्जुन से कहा जा रहा है निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन, तब मेरी बात को समझ सकेगा। त्रैगुण्य में तो घूमता ही रहेगा इसलिए प्रार्थना की जा रही है-धियो योनः प्रचोदयात्।
सबकुछ तुम में समाया
हमारी इस बुद्धि को त्रैगुण्य में से निकलकर वहां के लिए प्रेरणा करिए कि वह भर्गोदेव की ओर जा सके। इस बुद्धि का नाम प्रज्ञा है। प्राज्ञ नाम इन्द्र का है और इन्द्र युगलतत्व से जुड़ा हुआ है, इसलिए हमारा अन्तिम पुल (सेतु) इन्द्र है।
त्रिगुण के चक्कर से बाहर आई हुई प्रज्ञा बुद्धि ही हमें भर्गोदेव की ओर ले जा सकती है। वह भर्ग देव साक्षात् राधा-कृष्ण युगल तत्त्व अद्वैत है। गायत्री हमें इसी अग्नि सोममय युगल तत्त्व का ध्यान करने को प्रेरित करती है जिसे चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता और जो सभी ब्रह्माण्डों का शक्ति स्रोत है।
     

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