शुक्रवार, 28 मार्च 2014

आरएसएस भर रहा भाजपा में कूड़ा: जसवंत सिंह



जसवंत सिंह का ख़ास इन्टरव्यू बी बी सी से साभार 


“उम्र सारी कटी इश्क-ए-बुता में मोमिन, आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे” मोमिन की इसी शायरी को दोहरा दिया जसवंत सिंह ने जब हमने उनसे पूछा कि बीजेपी छोड़ने के बाद आपने कांग्रेस का दामन क्यो नहीं थामा.
हाल ही में बाड़मेर से टिकट न मिलने के बाद अपनी पार्टी के खिलाफ़ ही निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर खड़े होकर चर्चा में हैं भारतीय जनता पार्टी के पूर्व नेता जसवंत सिंह. अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में जसवंत सिंह दो बार वित्त मंत्री रहे हैं और एक-एक बार रक्षा और विदेश मंत्री भी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में बाड़मेर सीट पर उनकी दावेदारी पर कांग्रेस से भाजपा में आए सोनाराम चौधरी को तवज्जो दिए जाने के बाद जसवंत उखड़ गए.



बीबीसी को दिए एक ख़ास साक्षात्कार में संघ का बीजेपी में भूमिका जैसे कई मुद्दों पर बोले साथ ही उन्होने ये भी बताया कि क्यों अभी तक वो नरेंद्र मोदी को लेकर चुप रहे.

वो न सिर्फ राजनाथ सिंह की राजनीतिक विवशता पर बोले बल्कि बीजेपी के प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया को भी आड़े हाथों लिया. प्रत्याशियों के चुनाव और सीट के वितरण पर संघ के प्रभाव पर जसवंत सिंह ने कहा कि "संघ इस चुनाव को अहमियत दे रहा है लेकिन इसकी कीमत, सड़क पर से सारा कूड़ा करकट बटोरकर वह उन्हें बीजेपी के उम्मीदवार बना रहा है."

बीबीसी संवादादाता सुशांत मोहन से बातचीत का विस्तृत ब्यौरा:

जसवंत जी स्वागत है आपका बीबीसी में

शुक्रिया जनाब, आजकल स्वागत का अकाल सा पड़ा हुआ है, इसलिए जहां से भी स्वागत मिल जाए बहुत अच्छा लगता है.

आपके अलावा और भी कई लोग हैं जो पार्टी के टिकट वितरण से परेशान हैं ?

हां परेशान ज़रूर हैं , लेकिन मेरी परेशानी बिलकुल अलग है. मैने बाड़मेर के अलावा चित्तौड़ या जोधपुर से टिकट की मांग की थी लेकिन मुझे टिकट नहीं दिया, कोई बात नहीं, लेकिन उस नेता (सोनाराम चौधरी) को टिकट दे दी जो इतने सालों से हमें गाली देते हुए आए हैं, हमारे ख़िलाफ़ रहे हैं और बीते विधानसभा चुनाव में बीजेपी से हारे हैं, आज उसी नेता को आपने (भाजपा) अपना कैंडिडेट बना लिया. ये तर्क समझ नहीं आया.

जसवंत जी, पार्टी के टिकट वितरण से तो आडवाणी जी भी नाराज़ थे, सुषमा स्वराज भी नाराज़ थीं लेकिन किसी ने पार्टी नहीं छोड़ी. आपने ऐसा कदम क्यों उठाया ?

क्लिक करें(क्यों निकले जसवंत बीजेपी से - पूरा किस्सा यहां पढ़ें)

क्योंकि मेरे पास और कोई उपाय नहीं है. ये चुनाव लड़ने के लिए मैंने बहुत प्रयत्न किया लेकिन मेरी आवाज़ सुनी नहीं और फ़िर एक प्रकार से ढोंग होता कि मैं पार्टी में भी हूं और पार्टी के ख़िलाफ़ चुनाव भी लड़ रहा हूं, ये तर्कसंगत बात नहीं आती.




तो आप कांग्रेस के साथ क्यों नहीं गए, जब कांग्रेस के नेता वहां से यहां आ सकते हैं तो आपने ये विकल्प क्यों नहीं चुना?

(हंसते हुए) ये तो आप अन्याय करेंगे ये प्रश्न पूछकर. कांग्रेस से मेरा क्या लेना-देना. इतने वर्षों में मैं भाजपा के अलावा किसी दल में नहीं गया और सोचा भी नहीं... अब क्या ख़ाक मुसलमां होंगे यहां आकर हम...

जसवंत जी, आप भारतीय जनता पार्टी के बारे में बोले, आप वसुंधरा राजे के बारे में बोले, आप राजनाथ सिंह के खिलाफ़ भी बोले लेकिन आप नरेंद्र मोदी पर अब तक चुप रहे ऐसा क्यों ?

भई उनका रोल क्या रहा है मुझे उसका ज्ञान नहीं और जो चयन हुआ है वो राजस्थान में हुआ है. वसुंधरा राजे, सोनाराम का नाम सेंट्रल कमेटी के सामने लाई और राजनाथ सिंह ने इस पर आखिरी फ़ैसला लिया.

भले ही वो इसे ‘राजनीतिक विवशता’ का नाम दे रहे हैं लेकिन ये विवशता क्या है इसे वो खुल कर नहीं बता सकते. ये उनका फ़ैसला है और अन्य किसी का इसमें हाथ नहीं है.

तो इसका मतलब आप नरेंद्र मोदी का समर्थन करते हैं, और अगर आप जीते तो भाजपा में वापस लौटेंगे, उन्हें समर्थन देंगे ?

ये बात बहुत दूर की बात है लेकिन मेरी भारतीय जनता पार्टी में लौटने की कोई इच्छा नहीं है.

आप नरेंद्र मोदी के बारे में नहीं बात कर रहे हैं, वो तो भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. उनके बारे में क्या राय है आपकी ?

वो भाजपा का चुनाव हैं और पार्टी व्यक्ति विशेष की राजनीति में उलझ गई है. अच्छा होता कि वो इसमें नहीं उलझते.




पार्टी में आपकी न सुने जाने का कारण आपके संघ के साथ तनावपूर्ण संबंधों को भी बताया जा रहा है. क्या ये सही है कि रज्जू भैय्या पर की गई आपकी टिप्पणी का खामियाज़ा आप अब भुगत रहे हैं ?

 

मुझे याद नहीं कि मैंने कब रज्जू भैय्या के खिलाफ़ कुछ कहा. मेरे हमेशा उनसे पारिवारिक संबंध रहे और मेरे किसी पुराने बयान को ढूंढ कर पेश किया गया है जिसका मेरे चुनाव से कोई सरोकार नहीं है. मेरे बारे में फ़ैसला राजनाथ सिंह ने लिया है.

तो आप मानते हैं कि संघ की इस चुनाव में कोई भूमिका नही हैं ?

मैंने सुना है कि आरएसएस इस चुनाव को बहुत महत्ता दे रहा है लेकिन इसके लिए वो क्या कीमत चुका रहे हैं. वो सड़क से सारा कूड़ा करकट उठाकर भाजपा के प्रत्याशियों के रूप में आगे कर रहा है.

राम मंदिर का क्या होगा? क्या अब ये कोई मुद्दा नहीं है ?

मैंने तो आडवाणी जी से पहले ही कहा था कि एक राम मंदिर और बन जाने से या न बनने से भगवान राम की महत्ता बढ़ या घट नहीं जाएगी. ये मुद्दा है ही नहीं और विकास इससे बड़ा मुद्दा है.

क्या ये चुनाव आपके सम्मान का चुनाव है?

ये मेरे सम्मान से ज़्यादा मेरे अस्तित्व का चुनाव है और मेरे क्षेत्र के सम्मान का चुनाव है. मेरा सम्मान इस सबके आगे गौण है.



जसवंत सिंह ने इस पूरी बातचीत के दौरान नरेंद्र मोदी से किसी भी तरह की नाराज़गी से इनकार किया और साथ ही खुद को संघ से अलग जरूर माना लेकिन उनके ख़िलाफ़ नहीं माना.

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