बुधवार, 18 अप्रैल 2012

थार की संस्कृति से गायब होता प्याऊ


थार की संस्कृति से गायब होता प्याऊ 
रेगिस्तान से बेहतर पानी का मौल कौन समझ सकेगा? समूचा थार पानी को लेकर जितना विपन्न है उसकी पानी वाली संस्कृति उतनी ही संपन्न है। लेकिन अब थार पानी की अपनी लोक परम्परा व संस्कृति को भूलता जा रहा है. कभी गर्मी आती थी तो सड़कों, चौराहों व घरों के सामने प्याऊ भी पैदा हो जाते थे जो आते जाते राहगीरों को पानी पिलाते थे. लेकिन भीषण गर्मी में शहर तथा गाँवो में राहगीरों के लिए प्याऊ लगाने की परंपरा अब लगभग ख़तम सी हो गयी है. प्लास्टिक की बोतलों और पानी के पाउचों ने आम आदमी की पहुँच प्याऊ तक समाप्त कर दी है.

बाड़मेर व जैसलमेर में अक्सर गर्मी का मौसम शुरू होते ही आम राहगीरों के लिए पानी की प्याऊ लगाने के लिए होड़ सी मच जाती थी. प्याऊ पर दस बारह पानी से भरी मटकिया राखी जाती थी तथा लोग बारी बारी से अपनी सेवाए इन प्याऊ पर देकर अपने हाथो से राहगीरों को पानी पिला कर उनके हलक तट करते थे. पूरे शहर में जगह जगह पर प्याऊ दिखाई देते थे. हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार प्यासे को पानी पिलाना सबसे बड़ा धर्म मन जाता था, इसलिए हर व्यक्ति प्याऊ लगा कर पुण्य कमाना चाहता था. शहर के धन्ना सेठ ऐसे पुनीत कार्यो में सदा आगे रह कर बड़ी तादाद में प्याऊ खुलवाते थे. विशेषकर वैशाख और जेठ माह में तो लोगों को प्याऊ में पानी के टैंकर डलवाने के लिए कई दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता.

लेकिन अब समय के साथ प्याऊ लगाने की परंपरा खत्म होती जा रही है. आज बाड़मेर या जैसलमेर शहर में एक भी प्याऊ नहीं दिखाई देता. बाजारों में पानी की बोतलों तथा पाउच के बढ़ाते प्रचलन से लोगों तथा धर्मावलम्बियों ने भी प्याऊ लगाने से मूंह मोड़ लिया है. ऐसा नहीं है कि लोग अब शहर में प्यासे नहीं होते. प्यासे होते हैं लेकिन उनकी प्यास अब आठ आना एक रूपये वाले पानी के गिलास या पाउच से बुझती है. जो लोग प्याऊ लगाना चाहते हैं उनके लिए मुश्किल यह है कि शहर अब उनको इतनी जगह और अवसर दोनों नहीं देता कि वे प्याऊ लगाकर पुण्य कमा सकें.

बड़े शहरों से प्याऊ का गला न जाने कब का घोट दिया गया, लेकिन दुर्भाग्य से बाड़मेर और जैसलमेर शहर भी अब बड़े शहरों की तर्ज पर वही कर रहे हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए.

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