मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

गुजरात दंगे: रेहान फज़ल की आपबीती- पत्‍नी के क्रेडिट कार्ड से बची थी जान



दस साल पहले गोधरा में ट्रेन जलाए जाने के बाद भड़के दंगे को कवर करने गए बीबीसी संवाददाता रेहान फज़ल को किस तरह दंगाइयों की भीड़ का सामना करना पड़ा और किस तरह उन्होंने अपनी जान बचाई, पढि़ए उनके लिखे इस संस्‍मरण में।


27 फ़रवरी 2002 की अलसाई दोपहर. मेरी छुट्टी है और मैं घर पर अधलेटा एक किताब पढ़ रहा हूँ. अचानक दफ़्तर से एक फ़ोन आता है. मेरी संपादक लाइन पर हैं. 'अहमदाबाद से 150 किलोमीटर दूर गोधरा में कुछ लोगों ने एक ट्रेन जला दी है और करीब 55 लोग जल कर मर गए हैं.' मुझे निर्देश मिलता है कि मुझे तुरंत वहाँ के लिए निकलना है. मैं अपना सामान रखता हूँ और टैक्सी से हवाई अड्डे के लिए निकल पड़ता हूँ. हवाई अड्डे के पास भारी ट्रैफ़िक जाम है.अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई का काफ़िला निकल रहा है. मैं देर से हवाई अड्डे पहुँचता हूँ. जहाज़ अभी उड़ा नहीं हैं लेकिन मुझे उस पर बैठने नहीं दिया जाता. मेरे लाख कहने पर भी वह नहीं मानते. हाँ यह ज़रूर कहते हैं कि हम आपके लिए कल सुबह की फ़्लाइट बुक कर सकते हैं. अगले दिन मैं सुबह आठ बजे अहमदाबाद पहुँचता हूँ. अपना सामान होटल में रख कर मैं अपने कॉलेज के एक दोस्त से मिलने जाता हूँ जो गुजरात का एक बड़ा पुलिस अधिकारी है. वह मेरे लिए एक कार का इंतज़ाम करता है और हम गोधरा के लिए निकल पड़ते हैं. मैं देखता हूँ कि प्रमुख चौराहों पर लोग धरने पर बैठे हुए हैं. मेरा मन करता है कि मैं इनसे बात करूँ. लेकिन फिर सोचता हूँ पहले शहर से तो बाहर निकलूँ.अभी मिनट भर भी नहीं बीता है कि मुझे दूर से करीब 200 लोगों की भीड़ दिखाई देती है. उनके हाथों में जलती हुई मशालें हैं. वे नारे लगाते हुए वाहनों को रोक रहे हैं. जैसे ही हमारी कार रुकती है हमें करीब 50 लोग घेर लेते हैं. मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन मेरा ड्राइवर इशारे से मुझे चुप रहने के लिए कहता है. वह उनसे गुजराती में कहता है कि हम बीबीसी से हैं और गोधरा में हुए हमले की रिपोर्टिंग करने वहाँ जा रहे हैं. काफ़ी हील हुज्जत के बाद हमें आगे बढ़ने दिया जाता है. डकोर में भी यही हालात हैं. इस बार हमें पुलिस रोकती है. वह हमें आगे जाने की अनुमति देने से साफ़ इनकार कर देती है. मेरा ड्राइवर गाड़ी को बैक करता है और गोधरा जाने का एक दूसरा रास्ता पकड़ लेता है.छुरे से वार



जल्दी ही हम बालासिनोर पहुँच जाते है जहाँ एक और शोर मचाती भीड़ हमें रोकती है. जैसे ही हमारी कार रुकती है वे हमारी तरफ़ बढ़ते हैं. कई लोग चिल्ला कर कहते हैं,'अपना आइडेन्टिटी कार्ड दिखाओ.'
मैं अपनी आँख के कोने से देखता हूँ मेरे पीछे वाली कार से एक व्यक्ति को कार से उतार कर उस पर छुरों से लगातार वार किया जा रहा है. वह ख़ून से सना हुआ ज़मीन पर गिरा हुआ है और अपने हाथों से अपने पेट को बचाने की कोशिश कर रहा है. उत्तेजित लोग फिर चिल्लाते हैं, 'आइडेन्टिटी कार्ड कहाँ है?' मैं झिझकते हुए अपना कार्ड निकालता हूँ और लगभग उनकी आँख से चिपका देता हूँ. मैंने अगूँठे से अंग्रेज़ी में लिखा अपना मुस्लिम नाम छिपा रखा है. हमारी आँखें मिलती हैं. वह दोबारा मेरे परिचय पत्र की तरफ़ देखता है. शायद वह अंग्रेज़ी नही जानता. तभी उन लोगों के बीच बहस छिड़ जाती है. एक आदमी कार का दरवाज़ा खोल कर उसमें बैठ जाता है और मुझे आदेश देता है कि मैं उसका इंटरव्यू रिकार्ड करूँ. मैं उसके आदेश का पालन करता हूँ. वह टेप पर बाक़ायदा एक भाषण देता है कि मुसलमानों को इस दुनिया में रहने का क्यों हक नहीं है. अंतत: वह कार से उतरता है और उसके आगे जलता हुआ टायर हटाता है.





कांपते हाथ






मैं पसीने से भीगा हुआ हूँ. मेरे हाथ काँप रहे है. अब मेरे सामने बड़ी दुविधा है. क्या मैं गोधरा के लिए आगे बढ़ूँ जहाँ का माहौल इससे भी ज़्यादा ख़राब हो सकता है या फिर वापस अहमदाबाद लौट जाऊँ जहाँ कम से कम होटल में तो मैं सुरक्षित रह सकता हूँ.लेकिन मेरे अंदर का पत्रकार कहता है कि आगे बढ़ो. जो होगा देखा जाएगा. सड़कों पर बहुत कम वाहन दौड़ रहे हैं. कुछ घरों में आग लगी हुई है और वहाँ से गहरा धुआं निकल रहा है. चारों तरफ़ एक अजीब सा सन्नाटा है. मैं सीधा उस स्टेशन पर पहुँचता हूँ, जहाँ ट्रेन पर आग लगाई गई थी. पुलिस के अलावा वहाँ पर एक भी इंसान नहीं हैं. चारों तरफ़ पत्थर बिखरे पड़े हैं. एक पुलिस वाला मुझसे उस जगह को तुरंत छोड़ देने के लिए कहता है.मैं पंचमहल के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक राजू भार्गव से मिलने उनके दफ़्तर पहुँचता हूँ. वह मुझे बताते हैं कि किस तरह 7 बजकर 43 मिनट पर जब साबरमती एक्सप्रेस चार घंटे देरी से गोधरा पहुँची, तो उसके डिब्बों में आग लगाई गई. वह यह भी कहते हैं कि हमलावरों को गिरफ़्तार कर लिया गया है और पुलिसिया ज़ुबान में स्थिति अब नियंत्रण में है. मेरा इरादा गोधरा में रात बिताने का है लेकिन मेरा ड्राइवर अड़ जाता है. उसका कहना है कि यहाँ हालात ओर बिगड़ने वाले हैं. इसलिए वापस अहमदाबाद चलिए.टायर में पंक्चर



हम अपनी वापसी यात्रा पर निकल पड़ते हैं. अभी दस किलोमीटर ही आगे बढ़े हैं कि हम देखते हैं कि एक भीड़ कुछ घरों को आग लगा रही है. मैं अपने ड्राइवर से कहता हूँ, स्पीड बढ़ाओ. तेज़.... और तेज़!
वह कोशिश भी करता है लेकिन तभी हमारी कार के पिछले पहिए में पंक्चर हो जाता है. ड्राइवर आनन फानन में टायर बदलता है और हम आगे बढ़ निकलते हैं. हम मुश्किल से दस किलोमीटर ही और आगे बढ़े होंगे कि हमारी कार फिर लहराने लगती है. इस बार आगे के पहिए में पंक्चर है. हम बीच सड़क पर खड़े हुए हैं.... बिल्कुल अकेले. हमारे पास अब कोई अतिरिक्त टायर भी नहीं है. ड्राइवर नज़दीक के एक घर का दरवाज़ा खटखटाता है. दरवाज़ा खुलने पर वह उनसे विनती करता है कि वह अपना स्कूटर कुछ देर के लिए उसे दे दें ताकि वह आगे जा कर पंक्चर टायर को बनवा सके.क्रेडिट कार्ड ने जान बचाई


जैसे ही वह स्कूटर पर टायर लेकर निकलता है, मैं देखता हूँ कि एक भीड़ हमारी कार की तरफ़ बढ़ रही है. मैं तुरंत अपना परिचय पत्र, क्रेडिट कार्ड और विज़िटिंग कार्ड कार की कार्पेट के नीचे छिपा देता हूँ. यह महज़ संयोग है कि मेरी पत्नी का क्रेडिट कार्ड मेरे बटुए में है. मैं उसे अपने हाथ में ले लेता हूँ. माथे पर पीली पट्टी बाँधे हुए एक आदमी मुझसे पूछता है क्या मैं मुसलमान हूँ. मैं न में सिर हिला देता हूँ. मेरे पूरे जिस्म से पसीना बह निकला है. दिल बुरी तरह से धड़क रहा है. वह मेरा परिचय पत्र माँगता है. मैं काँपते हाथों से अपनी पत्नी का क्रेडिट कार्ड आगे कर देता हूँ. उस पर नाम लिखा है रितु राजपूत. वह इसे रितिक पढ़ता है. अपने साथियों से चिल्ला कर कहता है, 'इसका नाम रितिक है. हिंदू है.... हिंदू है... इसे जाने दो.'! इस बीच मेरा ड्राइवर लौट आया है. वह इंजन स्टार्ट करता है और हम अहमदाबाद के लिए निकल पड़ते हैं बिना यह जाने कि वह भी सुबह से ही इस शताब्दी के संभवत: सबसे भीषण दंगों का शिकार हो चुका है.

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