बुधवार, 22 जून 2011

यथार्थ गीता : कर्मणैव हि संसिद्धि मास्थिता जनकादय:। लोकसड़ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।


कर्मणैव हि संसिद्धि मास्थिता जनकादय:।

लोकसड़ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।

जनक माने राजा नहीं, जनक जन्मदाता को कहते हैं। योग ही जनक है जो आपके स्वरूप को जन्म देता है, प्रकट करता है। योग से संयुक्त प्रत्येक महापुरुष जनक है। ऐसे योगसंयुक्त बहुत से ऋषियों ‘जनकादय:’- जनक इत्यादि ज्ञानीजन महापुरुष भी ‘कर्मणा एव हि संसिद्धिम्’- कर्म के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। परमसिद्धि माने परमतत्व परमात्मा की प्राप्ति। जनक इत्यादि जितने भी पूर्व में होनेवाले महार्षि हुए हैं, इस कार्य कर्म के द्वारा, जो यज्ञ की प्रक्रिया है, इस कर्म को करके ही ‘संसिद्धिम्’- परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। किन्तु प्राप्ति के पश्चात् वे भी लोकसंग्रह को देखकर कर्म करते हैं, लोकहित को चाहते हुए कर्म करते हैं। अत: तू भी प्राप्ति के लिये और प्राप्ति के पश्चात् लोकनायक बनने के लिये कार्यं कर्म करने के ही योग्य है। क्यों। 

अभी श्रीकृष्ण ने कहा था कि प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष का कर्म करने से न कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि ही है, फिर भी लोकसंग्रह, लोकहित व्यवस्था के लिये वे भली प्रकार नियत कर्म का ही आचरण करते हैं।

यद्यदाचरित श्रेष्ठस्त्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष्ज्ञ भी उसके अनुसार ही करते हैं। वह महापुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, संसार एसका अनुसरण करता है। 

पहले श्रीकृष्ण ने स्वरूप में स्थित, आत्मतृप्त महापुरुष की रहनी पर प्रकाश डाला कि उसके लिये कर्म किये जाने से न कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि, फिर भी जनकादि कर्म में भली प्रकार बरतते थे। यहां उन महापुरुषों से श्रीकृष्ण धीरे से अपी तुलना कर देते हैं कि मैं भी एक महापुरुष हूं। 

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